Sunday, 19 February 2023

मुझे इस ट्रेट से निजात पाना है : विदुषी सीरीज़

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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मुझे इस ट्रेट से निजात पाना है...

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हम शारीरिक दृष्टि से एक व्यक्ति भले ही दिखायी दें, मानसिक स्थिति यह है कि हम एक में अनेक होते हैं. याने एक शख़्स में  में बहुत सी शख़्सियतें छुपी होती है.


विदुषी का यह वैयक्तिक सोच था कि दुर्भाग्यवश वह पुरुष 'प्रेम'और 'संसर्ग' से वंचित है और यह उसके जीवन को खोखला व असंतुलित कर रहा है, उसे एक स्त्री होने के नाते यह पूरा अधिकार है कि वह जीवन के इस पहलू को एक्सप्लोर करे. विदुषी के छोटे मोटे अभियान इस क्रम में होते रहते थे. 


एक दर्शन और मनोविज्ञान का संतुलित अध्ययन करने वाला बिना जजमेंटल हुए चीजों को जस को तस देखने वाला बंदा उसका सोसल मीडिया पर दोस्त बन गया था जिसे वह 'फ़्रेंड फ़िलोसोफ़र और गाइड' के ख़िताब से अपनी ज़ुबान से नवाज़ चुकी थी. उसकी लोजिकल और अनुभवजनित बातों को सुनती थी, सहमति भी जताती थी. उसकी भलमनसाहत का मुसल्सल दोहन भी करती थी, लेकिन अपने ट्रेट्स से चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाई थी या होना नहीं चाहती थी.


जहां भी प्रेम और सेक्स के पोईंट उठते है बुद्धिजीवी मानव मानवी स्पिरिचूऐलिटी का कवर लेते हुए ओशो के साहित्य और आश्रमों की तरफ़ मुख़ातिब होते हैं मानो वहाँ ये सब Knor के सूप्स और Maggie की नूडल्स की तरह इंस्टेंट मिल जाएँगे. विदुषी की चिंतन धारा भी कुछ ऐसे ही प्रवाह में बह चली थी. 


हाँ तो दिल्ली में आयोजित होने वाले एक ओशो-शिविर में विदुषी ने शिरकत करने का तय किया ध्यान सीखने के प्रकट मक़सद से, हालाँकि बेक ओफ़ माइंड में वही सोच और ट्रेट थी जिसका ज़िक्र में ऊपर कर चुका हूँ. 


दोस्त ने बताया था कि ऐसे शिविरों में अधिकांश सहभागी गम्भीर और जिज्ञासु लोग होते हैं जो अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर होते हैं और बातों को समग्रता से युक्तिसंगत रूप में ग्रहण करते हैं. दोस्त ने फिर आगाह किया था कि इन शिविरों में कुछ ऐसे स्वामीजी और मायें भी होती है जिनका मूल उदेश्य ऐसे साथी तलाशना होता है जो ओशो के शब्दों में ध्यान और आध्यात्म से अधिक खुले सेक्स को देखने की मनसा लिए होते हैं और पार्ट्नर्स की तलाश में रहते हैं. 


तीन दिवसीय शिविर में विदुषी की मुलाक़ात एक "स्वामीजी" से हुई जो ज़िंदगी को भरपूर जीने वाले थे, एक वाकपटु व्यक्ति जिनको ओशो की टॉक्स के वे अधूरे हिस्से आकर्षित करते थे जिनमें प्रेम और सेक्स का ज़िक्र हुआ करता था. स्वामीजी और विदुषी के विचार विनिमय इन प्रिय विषयों पर वहाँ सविस्तार खूब हुए थे. 


विदुषी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ ठहरी हुई थी वहाँ का पता स्वामीजी ने सानुरोध लिया था और आपस में मोबाइल नंबर्स का भी आदान प्रदान हुआ था. स्वामीजी ने इजहार किया था कि वे बहुत impressed थे हमारी विदुषी जी के शारीरिक सौष्ठव, खुद को कैरी करने के ढंग और इंटेलिजेंस से. प्रशंसा के पुल बांधे थे उस शविरार्थी ने. विदुषिजी ने भी बहुत अच्छे वाइब्स अनुभूत किए थे. स्वामी जी  ने इच्छा ज़ाहिर की थी कि वे विदुषी को 'हग' करना चाहेंगे और कहीं बैठ कर कुछ बौद्धिक विषयों पर चर्चा भी करना चाहेंगे. और इसके लिए वे शाम को उस कॉम्प्लेक्स में आकार विदुषी को फ़ोन करेंगे ताकि दोनों मिल सकें.


विदुषी ये सब बातें उत्साहित हो कर फ़ोन पर अपने उस "दोस्त" से शेयर कर रही थी अपने अनुसार शब्द देकर. हालाँकि वह मनोवैज्ञानिक बंदा बात बात में लगभग सब कुछ extract कर चुका था. 


अचानक स्वामी का काल आने लगा, विदुषी ने काट कर उस से बात की और वापस काल मिलाकर स्वामीजी के पदार्पण की ख़बर दोस्त को दी. दोस्त ने बिना जजमेंटल हुए आगे पीछे का ज़मीनी सच विदुषी को एक्सप्लेन किया, विदुषी ने कहा वह अच्छे से समझ गयी है और स्वामी को चलता करेगी. फ़ोन रखते ही विदुषी की ट्रेट फिर से उस पर हावी होने लगी थी. अपनी खुद की समझी और मानी हुई बातें उसको दोस्त का interference लगने लगा था.


नाना प्रकार के इंटेलेकचुअल जस्टीफ़िकेशन अपने लिए उसके ज़ेहन में आने लगे थे. विदुषी अपनी आज़ादी का परचम फहराने के लिए अपनी ताज़ा तलाश से मिलने फटाफट ड्रेस चेंज कर, टच अप कर, 'अजोरा' स्प्रे  कर के कॉम्प्लेक्स के ग्राउंड फ़्लोर में चली आयी थी जहां स्वामी अपनी स्कोडा में उसका इंतज़ार कर रहा था.


दूसरे दिन विदुषी फिर से उस दोस्त से फ़ोन पर पछतावे के साथ कह रही थी-तुम सच कहते थे...मैं ही बह गयी. जो हो गया सो हो गया, अब मुझे सम्भालो, मुझे टोको...मुझे रोको. मुझे अपनी इस ट्रेट से निजात पाना है.

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