Sunday 19 February 2023

पतंग डोर और चरखी : विजया

 पतंग डोर और चरखी 

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चली थी पतंग 

खुले आकाश 

डोर थी संग संग 

जा रही थी ऊपर और ऊपर 

छूने अनजानी ऊँचाइयों को 

डोर भी दे रही थी 

खुले दिल से साथ 

उसके इस अभियान में 

निकल कर चरखी से...


आकाश में थी 

पूरी की पूरी डोर 

बस अंतिम सिरा 

बंधा हुआ था चरखी पर 

मगर पतंग थी महफ़ूज़ 

और डोल रही थी मस्त मस्त

अपनी ही धज में 

हालाँकि हो रहा था उसे महसूस 

कुछ मिसिंग मिसिंग सा...


ख्वाहिश थी पतंग की 

और ऊपर जाने की 

कर बैठी ज़िद्द 

लगी इठलाने फड़फड़ाने 

सूत्रधार ने बात को समझा 

और कर दिया जुदा 

डोर को चरखी से...


पतंग अब पूरी आज़ाद

अपने मन से उड़े जा रही थी 

ऊपर और ऊपर जा रही थी 

एक नयी उन्मुक्तता 

उसे दिशा भटका रही थी 

अराजक होकर पतंग की चाल ढाल 

बेढंगी हो गयी थी 

डोर भी बेचारी उसके साथ लटकी लटकी 

भटक रही थी...


अचानक कटी पतंग 

नीचे और नीचे आने लगी 

रास्ते के आवारा लड़के 

लम्बे लम्बे नुकीले काँटे लगे बांस लिए दौड़े 

झगड़ने लगे : पतंग मेरी, डोर मेरी 

चल हट सब कुछ मेरा 

कोई डोर फँसा रहा था 

कोई पतंग को लपक रहा था...


(और जो हुआ होगा हस्र पतंग का 

पाठक की कल्पना पर छोड़ती हूँ)

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