Tuesday, 5 August 2014

एहसास कुछ होने का : (नायेदाजी)

एहसास कुछ होने का 
# # #
उजियारी
धूप,
सोने का
झोल,
खुदाई रोशनी का
नूर,
सूरज की
सौगात सी,
माँ कि गोद की
गर्माहट सी
असीर के
बाहर की
आज़ादी सी,
जब भी
छूती है
मुझे,
मिल जाता है
मुझे
अपना वजूद,
और
दे जाता है
एहसास,
कुछ होने का.

मस्त पवन का
झोंका,
या
शमीम दीवानी सी,
महबूब सा
स्पर्श,
तानसेन सा
संगीत,
जब भी
छूता है मुझे,
होता है मुझे,
एहसास
अनोखा
और
दे जाता है
संदेसा,
कुछ होने का.

बारिश की
बौछारें
खुशबू की
फुहारें,
कुदरत के
इशारे,
भीगे भीगे से
नज़ारे,
जब भी
चले आते है
करीब मेरे,
होता है
भरोसा
किसी के
अपनत्व का
और
गुनगुना जाते है
गीत,
कुछ होने का.

लहरों की
चिंघाड़े
मानो करबला के
ललकारे,
सागर की
गहरायी
या उसके
आदि-अंत का
अपरिचय,
जब भी
होते है दो-चार,
मेरे जेहन-ओ-जिगर के,
दे जाते है
मुजर्रब सा मुतालआ,
कुछ होने का.

पर्बतों की
उत्तंग चोटियाँ,
उन पर जमी
बर्फ का
ठोसपन,
सूरज की
तपिश से
पिघलाना,
झरने या
दरिया का
बन जाना,
फूंकता है
नित नया मंत्र
मेरी खुदगर्ज़
काईनात में,
सीखा जाता है
एक सबक,
कुछ होने का.

इन्द्र धनुष के
रंग,
बादलों का
उमड़ना,
मोर का
नाचना,
कोयल का
कूकना,
जिन्दा
कर जाते है
मुझ को,
फूंक के प्राण
मेरे मुर्दा जिस्म में,
जगा जातें है
अरमान,
कुछ होने का.

क्यों हो जाते है
हम गाफिल,
जिंदगी की
जद्दो-जहद में,
मुरझाये से रहते है
हरदम
गोया
बसते रहें थे
लहद में,
क्या हुआ जो
थोडा ना मिला,
बहुत डाला है
उसने
झोली में मेरे,
खुदाई करम का
जलवा,
देता है
दिलासा,
कुछ होने का.

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मायने :
असीर=कैद, मुजर्रब=अनुभूत, परीक्षित, मुतालआ=अध्ययन, निरीक्षण. काईनात= सामर्थ्य. करम=कृपाएँ

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