Tuesday 5 August 2014

जिंदगी को मकसद दो ! (अंकितजी)

जिंदगी को मकसद दो !
(यह रचना मैंने अपने student life में, एक दिल छूनेवाले article को पढ़ कर लिखी थी.
इस प्रबुद्ध 'फोरम' पर इसे शेयर करते हुए मुझे ख़ुशी हो रही है, यद्यपि समय के साथ मेरे सोचने का अंदाज़ कुछ कुछ बदल गया है........लेकिन 'basics' वही है)

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जिंदगी को मकसद दो,
और
दिल-ओ-दिमाग को जज्बा,
भर लो खुद को,
ऊँचाइयों के सपनो में...

गर ना हो मकसद कोई
जीने का,
पैदा होगा नहीं तुझ में एकत्व,
रहेगी बिखरी बिखरी सी
ताकतें तुम्हारी,
रहोगे बिखरे से तुम भी,
रहोगे टूटे हुए से
रहोगे टूटते निरंतर,
और
बीच राह
रेंगते रेंगते
गिर पड़ोगे
खो कर वजूद अपना...

पाना है शख्सियत को,
करलो एकजुट
खुद की जेहनी,
और
जिस्मानी
ताकतों को,
हो जाओ समर्पित
लक्ष्य को,
पाया जाता है
मात्र ऐसे ही,
स्वतंत्रता को,
स्व-पहचान को....

भूली भटकी मानसिकता में
जीने वाले,
होतें है एक भीड़ अराजक सी,
करते हैं बातें
थोपे हुए अनुशासन की,
होतें है स्वर उनके
विरोधी स्व के,
खिल सकता नहीं
संगीत सप्तक,
जो हो पाए
शक्ति जीने की...

देखोजमीं में दबे
बीज को,
कैसे संजो अपनी
सब ताकतों को,
उठता है ऊपर जमीं पर,
प्यास देखने सूरज को
बानाती है उसको अंकुर...

तोड़ता है खुद को
इसी प्रबल इच्छा-शक्ति से,
और चला आता है बाहिर
छोटेपन से...

बनो तुम भी
तरह बीज के,
बढ़ो ऊपर की ओर
संजो कर सारी
ताकतों को,
आएगा जरूर
वह पल,
पा सकोगे जब तुम
अपने स्वयं (सेल्फ) को....

मगर
सावधान !
लक्ष्य जीवन का ठोस हो,
सकारात्मक(positive) हो,
तुम्हारा अपना हो,
बासी ना हो,
उधार का ना हो,
और
जिद्द में कुछ अलग बनने का
क्रम ना हो....

चुन लो बस
एक 'सोलिड' सा मकसद,
छुअन जिसकी हो कोमल
नन्हे पंछी के पंखो सी,
जगा लो प्यास गहरी
उसे पाने की,
हो यही सफ़र तुम्हारा
जीवन जानने का,
जीवन जीने का....

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