Tuesday, 5 August 2014

दर्पण : (अंकितजी)

दर्पण 
# # #
जीवन
हमारा है
एक दर्पण,
हम निशि-दिन
जमने देतें है
धूल
इस उजले दर्पण पर,
करते नहीं
प्रयास कभी
हठाने का
मेल इसके आंगन से
और
हो जाता है
नितान्त अंधा
अपना यह दर्पण,
कोई और तो क्या
हम स्वयं
देख नहीं पाते
प्रतिबिम्ब अपना सम्पूर्ण
होतें हैं जब जब
हम
सम्मुख
दर्पण के...

जब भी हम
सोचें औरों को
और
करें
उनकी व्यर्थ
आलोचना,
ठहरें तनिक
और
करें पूर्व उसके
सामना
उजले
दर्पण का....

दर्पण
मिथ्या न बोलेगा
जैसा है
वैसा ही
भेद वह
खोलेगा,
आओ
अपने मन को
दर्पण बनाये,
भले बुरे
सारे कर्मों को
देखें और
दिखाएँ...

No comments:

Post a Comment