Saturday 9 August 2014

अन्धकार और प्रकाश : (अंकितजी)

अन्धकार और  प्रकाश

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तम  की चिंता छोड़ो 
प्रकाश को प्रदीप्त करो.

जो सोचते हैं 
सोचते रहते हैं 
बस तम का
वो नहीं पहुँच पाते
कभी प्रकाश तक.

होता है हर जीवन में
अंधकार
कर उसे स्वीकार-अंगीकार
कुछ  लोग
क्षीण कर लेते है
प्रकाश प्राप्ति की
आकांक्षा को.

यह स्वीकृति अंधकार की
एक पाप है
अपराध है
तुम्हारे अपने प्रति ही
यही जनमाता है
दूसरों के खिलाफ
तुम से होने वाली
नादानियों को
तुम्हारे निरप्राध अपराधों को.

कुछ  लोग
अंधकार स्वीकार्य से बचने
जुट जाते हैं
सतत उसे 
नकारने में
और अंधकार का निषेध
बन जाता है उनका
एक मात्र उपक्रम.

भूल होती है
तम की हस्ती को स्वीकारना
उसकी काल्पनिक सत्ता के सम्मुख
सिर को झुका देना.

वैसी ही भूल होती है
उस से बेवजह लड़ना
दोनो ही है भ्रम मनुज के
दोनो है अज्ञान
सदियों से सधाए  हुए
मानव मन के.

अंधकार कुछ भी नहीं
है प्रकाश का ना होना
प्रकाश  का आगमन ही
मिटा देता है
घोर तम को
कर आलोकित कन कन को.

अंधकार से लड़ना मात्र
'अ '-'भाव' से लड़ना है
एक भटकाव  है
एक विक्षिप्तता  है
अर्ध चेतन मन की.

लड़ना है तो
तम को मिटाने नहीं
प्रकाश लाने के लिए लड़ो 
प्रकाश पा कर
प्रकाश ला कर
तम को स्वतः 
मिटने दो.

ना तम  को स्वीकारो
ना तम  को नकारो
ना तम  से लड़ो 
तम तुम्हारा लक्ष्य नहीं है
तुम्हारा गंतव्य है प्रकाश.

उठो! आगे  बढ़ो
पाने प्रकाश को
लाने नवज्योत को
जो तम  को निगल कर
कर दे रोशन
तन मन को.

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