Tuesday 19 August 2014

संगी

संगी
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देह और आत्मा
युक्ति और विवेक 
बुद्धि और मेधा
जागृत अवस्था,
ध्यान और मौन
सचेतना,
साक्षी भाव...
परे इन सब से
आ ही जाते हैं
कभी कभी
चिंतन मनन में
भाव
क्षणिक सी
अस्थिरता के ....
स्यात
किसी अँधेरे कोने में
बिना संभाले
बिना खंगाले
अवशेष रहा कुछ
करने लग जाता है
उपद्रव...
चूँकि
हो नहीं पायें हैं हम
वीतराग,
होगा यही
श्रेयस्कर
करलें हम
स्वीकार
स्वभाव के
इस मानवीय
पहलु को
और देखें
जो जैसा है वैसा ......
हाँ देखने
सुस्पष्ट
इस 'होने' को
रहती है तलाश
किसी संगी की
जो बिना अपनाये
निर्णयात्मकता*
देख सके
सब कुछ
सह-दृष्टि से
सम्यक दृष्टि से...
होता है ना
यही क्रम
उस यात्रा का
जो होती है
आरम्भ
बहिरंग से
और
पहुंच जाती है
अन्तरंग में ...
*judgemental होने की प्रवृति ..

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