Saturday 9 August 2014

कहानी अनूठे प्रेम की : इतिहास के पन्नो से : (अंकितजी)


कहानी अनूठे प्रेम की : इतिहास के पन्नो से

सिकंदर महान ने भारत में कई  राज्यों को जीता.  कोई भी कारण रहा हो, वो वापस यूनान चला गया और  यहाँ का जिम्मा अपने विश्वासी सेल्युकस  को दे गया. मगध सम्राट का दासी-प्रेमिका से उत्पन्न  पुत्र चंद्रगुप्त अपनी माता के अपमान का बदला अपने पिता राजा महा नंद से लेना चाहता था, इसलिए उसने सिकंदर की फौज को join’ किया 'as a‘जनरल’. इसी प्रकार उसका गुरु चाणक्य (कौटिल्य) भी अपने पिता की हत्या का बदला नंद-राजा से लेना चाहता था. दोनों  के प्रतिशोध की आग मगध-जीत और  महानंद को नष्ट  करने के मंसूबे रखती थी. इधर सेलयूकस की बेटी हेलेन और  चंद्रगुप्त में गहरा प्रेम हो जाता है. चंद्रगुप्त मगध विजय के जज़्बे को मूर्त रूप देना चाहता  है, जिसके लिए युद्ध  अवश्यंभावी है……उसी दौर में दोनो प्रेमी-प्रेमिका का संवाद इस कविता का विषय है.


चंद्रगुप्त-हेलेन संवाद

प्राक्कथन

कहाँ कौन जान सकता है, परिणाम युद्ध  का क्या होगा !
कौन पराजित युद्ध -भूमि में कौन विजित वहाँ होगा!!
कहती यवन बाला अनुनय से, चितवन बस स्नेह-सिक्त  है !
हृदय प्रेम से भरा हुआ है, देह अंग  समर्पित है !!
समर मार्ग पर जाता नर है, कफ़न बँधा उसके सिर है!
मृत्यु -वरण हो या जीवित हो, सब ही नियती निर्भर है !!

हेलेन:

साजन, चलो तुम साथ हमारे, ना हो राजमहल चाहे !
तुम महाराजा..मैं  महारानी, पर्ण  कुटीर भी हो चाहे !!

चंद्रगुप्त:

रूप और  यौवन मनुज को, कर देता है अंध, प्रिय !
प्रेम जकड़ जाता बेड़ी  बन, तो हो जाता मनु मंद प्रिय!!
मैं जाऊँगा  समरांगण को, दृढ़ प्रतिज्ञा  मेरी है !
एकाकी लड़ बढूँ  सर्वदा, प्रिय! ऐसी  तो मेरी चेरी है !!
पुत्र कैसा धिक्करी है, जो मातृ-अश्रु ना पोंछ सके !
प्रतिशोध-प्रतिज्ञा  शेष रहे, वह  निज परिणय को सोच सके!!
तुम मेरी जंजीर नहीं हो, तुम मेरी हो गति प्रिय !
एक  स्वास में जय  माला हो, एक  में वीरगति हो प्रिय !!
यदि विजय प्राप्त हो मुझ को, तो गले डालना  जय -माला !
यदि मृत्यु का वरण करूँ तो देना अगन चिता -ज्वाला !!
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चंद्रगुप्त के वचन दृढ़ थे, हेलेन बाला कमसिन थी !
पुष्प-मुख मलिन था उसका, अश्रु सिंचित दुई -नयनन  थी !!

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(अपने प्रेम को पाने मनुष्य  किस किस तरह यातना करता है....किंतु सच्चा प्रेम प्रेमी/प्रेमिका को खुशी देने में ही है......किसी एक  को तो पहल करनी  ही होती है..हेलेन को सलाम !)

हेलेन:

अपनी बुद्धि और  युक्ति से, नरेश तुम्हे बनवा दूँगी !
यूनान अधिकृत भारत का, शासन  भी संभाला दूँगी !!
मगध राज पर आक्रमण का साहस सिकंदर कर ना सका !
बना प्रतिनिधि तात  मेरे को चला, यहाँ वह  रह ना सका!!

चंद्रगुप्त:

तुम अपने मोह-बंध के खातिर, देश अपना क्यों बेच रही !
चंद्रगुप्त है वीर  सिपाही, सौदा असंभव क्यों सोच रही!!
अपनी मातृभूमि के प्रति सदा, सम्मान तुम्हारा रहे प्रिय !
निज स्वार्थ  के लिए, तुम्हारा यह पतन नहीं है मान्य  प्रिय !!
खींच खड्ग  छम-छम, चंद्रगुप्त यूँ बोला था !
माँ  शक्ति भवानी की जय  बोल, वह  स्वयं को तोला  था !!
विश्वास मुझे है अपने संबल का, राज्य  सिंहासन पाऊंगा  !
तदुपरांत हे प्राण-प्रिय ! में महारानी तुझे बनाऊंगा  !!

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बोली प्रिया हे प्राण-नाथ ! मुझे बस चंद्रगुप्त की वांछा  है !
बोला मौर्य करो प्रभु पूजन, बस जय  ही तुम्हारी इच्छा है. !!

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हेलेन :

कहना जिव्हा से सरल है, अति -कठिन समझाना  है मन को !
पुरुष हृदाय होता कठोर है, ठेस ना लगाना मेरे दिल को !!
समय बीतने के संग संग, कहीं भूल भी जाओ मौर्य मुझे !
वचन नहीं भूलूँ कभी, पर गुरु आज्ञा शिरोधार्य  मुझे !! (चंद्रगुप्त)
कौन गुरु है मुझे बताओ, भिक्षा माँगूंगी उनसे !
दे दें चंद्रगुप्त को मुझको, यह वर  मांगूंगी  उनसे !!

चंद्रगुप्त:

यथासमय देवी: अतिप्रिया मेरी !, परिचय उनका मैं  दे दूँगा !
क्षमा करो इस समय मुझे, हर आशय मैं  तुझको दे दूँगा!!

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हेलेन:

करें प्रभु दीर्घायु तुझे, जीत तुम्हारी चेरी हो !
स्वपन संजोए गयी कुमारी, दुनिया अब  तो मेरी हो !!


(यह बात अलग है की हेलेन को यूनान लौटना पड़ा……..उसकी विदाई कैसे हुई….चंद्रगुप्त और  उसकी आँखें क्या कह रही थी यह कुछ  इतिहास की और  कुछ कल्पना की बातें है. )

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