मैं और वो
(एक काल्पनिक पृष्ठभूमि में लिखी आध्यात्मिक रचना)
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मैं एक दफ़ा
एक इबादतगाह में गयी
वहाँ अल्लाह के ऐसे करम हुए
''मैं'' वहीं रह गयी
फिर जब 'वो' बाहिर आई
तो सारा आलम
उसके लिए इबादतगाह था
और हर इंसान
खुदा.
और उस दिन से
उसके लिए
उस इबादतगाह के
दरवाज़े बंद
हो गये थे
क्योंकि
चिल्ला चिल्ला कर
कोई कह रहा था
तुम ने इंसान
को खुदा माना
तुम काफ़िर हो.
माल्स की तरहा
मानो दूकाने
सजी हो.
'वो' एक दिन
फिर एक इबादतगाह
में गयी.
दुआओं में आदतन
उसके हाथ उठ गये
पुजारी को प्रभु
की प्रतिमा से ज़्यादा
उसकी फ़िक्र हो गयी थी.
उसका नाम पूछा गया.....
इल्म नहीं और
वहाँ भी दरवाज़ा
दिखा दिया गया
सुना है फर्श तक
को धोया पोंछा गया था.
कण कण में बसने
वाले प्रभु ने
कहा उस-से
कहाँ आ गयी थी तू ?
मैं तो तुम्हारे
और सबके दिलों
में बसता हूँ
मैं सजीव निर्जीव
सब में हूँ.
जर्रा जर्रा मेरे जलाल
से रोशन है.
उसके भरोसे को
ताक़त मिली
और 'वो' अब
हर शै में उसे देखती है.
और खुले आसमान के नीचे
आलोकिक नृत्य में
शिरकत करती है
और गाती है
सत्यम शिवम सुंदरम !
आत्मा अब उसकी नर्तक है,
अंतर-आत्मा रंग मंच
बुद्धि उसके वश में होने
के क्रम में है
सत्व सीढ़ी का मार्ग है प्रशस्त
इंतेज़ार है स्वातंत्र्य के
फलित होने का ताकि
वो अपने से बाहिर भी जा सके
और बाहिर रहते हुए
अपने भीतर भी
रह सके.(*)
(*)यह स्टॅन्ज़ा प्रेरित है शिव-सूत्र के एक श्लोक से.............
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(श्रावण "शिव" का माह होता है..........."शिव" एक ऐसे आदर्श जो समस्त
जाति -संप्रदायों से परे है, भोले शिव बस है तो 'कल्याणकारी'...इस रचना का मर्म
"शिव" है........जिसका कॉसमिक डांस समस्त विभेदों से परे है...कालातीत है.....समयातीत
है.........पुरुष और प्रकृति के रिश्ते को साकार करने वाले "शिव" का नमन !)
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