Sunday 10 August 2014

अहंकार:आँखो की पट्टी-आरुणी श्वेतकेतु चर्चा : (नायेदाजी)

अहंकार:आँखो की पट्टी-आरुणी श्वेतकेतु चर्चा
('छान्दोग्योपनिषदः' उपनिषद् के छठे  अध्याय और चतुर्दश खंड से भावानुवाद)

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गंधार* नगर का,
सुजान  मेधावी बाशिंदा,
छोड़ा गया था,
सुदूर कोई मैदान में,
आँखो पर बँधी थी पट्टी,
कर रहा था क्रंदन ,
चंहूँ  दिशी मुख कर,
गंधार कहाँ ?
गंधार कहाँ ??

लाया है कौन शत्रु,
मेरे नयनों को ढक  कर,
चला गया कहीं कोई,
मुझे यूँ तज कर,
रुदन उसका गगन भेदी,
गंधार कहाँ ?
गंधार कहाँ ??

उतारी  गयी थी,
उसकी  आँखों की पट्टी,
पुन: देखा था उसने,
उज्जवल आकाश,
सक्रिय जन जन,
सूर्य का प्रकाश,
पूछ रहा था सबसे,
वह ज्ञानी नर सुजान ,
होकर समर्पित,
विनयशील हो बारंबार,
अरे ! कोई बताओ मुझे,
कहाँ गंधार ?
कहाँ गंधार ??

पाकर उपयुक्त मार्ग दर्शन,
जागृत कर स्वयं का विवेक,
वह बुद्धिमान  नर करता है,
उचित सुझावों को स्वीकार,
ना सोचे अपनी जीत या हार ,
अपनी गतिशीलता से,
स्वयं के परिश्रम से,
पहुँचता है पुन: ,
अपने प्रिय गंधार,
होकर हर्षित और उल्लासित,
करता है हुंकार,
यहाँ गंधार !
यहाँ गंधार !!

कहता उड्डालक आरुणी,
प्रिय पुत्र श्वेतकेतु से,
सत्य राह  मिलने से,
सत्य मार्ग पर चलने से,
प्राप्य होता है जीवन सत्व ,
शरीर को संभालने का,
परमात्मा को पाने का,
जो बसता  है धूल के, 
महीनतम  कन में,
प्राणी-मात्र के अंतर्मन में,
जो है सर्वव्यापी सार्वभौमिक सत्या,
वही है आत्मा !
वही परमात्मा  ! !

देह का जब होता है परित्याग,
आत्मा पाती  ब्रहम लोक उपहार,
होता आत्मा का श्रृंगार ,
करता प्रभु उसे स्वीकार,
सूत  श्वेतकेतु,
बस यह विद्या का सार ,
यहाँ केवल प्रतीक,
है गंधार !
है गंधार !!

*कंधार शहर जो आब अफ़ग़ानिस्तान में है.

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