लक्ष्य
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एक पंछी ,
नन्हा सा,
कोमल सा,
मंडरा रहा था,
नील आकाश में.
सोचा उसने,
में उड़ू और,
छू लूँ
उस चाँदी से चमकते
श्वेत बादल को.
लगा पूरी शक्ति,
उड़ चला था पंछी
बादल की
दिशा में.
बादल चंचल
चलता
कभी पूरब
कभी पश्चिम
कभी रुकता
फिर लगा था
स्वयं को फैलाने
और हुआ कुछ ऐसा,
छंट गया बादल
बिखर सा गया
हो गया नज़रों से ओझल ,
पंछी के
पहुँचने से पहले.
कह उठा पंछी
मेरी भूल थी
मैं था भ्रमित
मेरा लक्ष्य
ठोस नहीं था
क्षण-भंगुर था.
मुझे लक्ष्य
रखना था
पर्वत के उन
गर्वीले शिखरों को
जो अनादि है
अनंत है
जिनमे व्याप्त
जीवन की कृतार्थता है
धन्यता है.
(इन्स्पाइयर्ड बाइ टॉक्स ऑफ ओशो)
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