उद्दालक आरुणी
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यह रचना आधारित है 'छान्दोग्योपनिषदः' पर. जितनी समझ थी उस-के अनुसार समझा है एवं भावानुवाद को आपके साथ बाँटने का यह एक छोटा सा प्रयास है. भूल-त्रुटि के लिए अग्रिम क्षमायाचना!
ज्ञानी पिता की शिक्षा मेधावी पुत्र को
(सन्दर्भ:अध्याय- 6.....खंड-1)
आरुणी नमक विद्वपुरुष था,
श्वेतकेतु पुत्र सुकुमार,
द्वादश वर्ष की आयु में,
किया गया उप-नयन संस्कार,
गुरु-कुल में वेद-पठन को,
भेजा गया आरुणिकुमार.
वर्ष बारह तक वेद पढ़े थे,
बन गया श्वेतकेतु सुजान ,
अतिपंडित अतिमेधावी ,
किंतु बात बात में अभिमान.
पिता बहुत ही चिंतित था,
देख निज-पुत्र का व्यवहार,
स्वकल्याण और जनहित हेतु,
देने होंगे विवेक संस्कार.
पुत्र ! नहीं है उचित तनिक भी,
तेरा यह मिथ्या अभिमान,
बारह वर्ष के बाद भी ,
रह गया तू निपट अनजान .
सर्वज्ञानी का वेश बनाए,
क्यों करता है तू प्रमाद,
बहुत जान-ना बाकी है,
पाया तू ने अधूरा ज्ञान.
क्या तू ने वह विद्या पढ़ी है,
जिस से होता है निज का संज्ञान,
जिसे सीख कर- उसे जान कर,
बन सकते हो चतुर सुजान .
(इस विवेक को पाकर, हे सूत ! )
थोड़ा सुन- सब सुन लेगा तू ,
जो कभी नहीं सुना था जीवन में,
जो अब तक ना आ पाया था तू ने,
आ जाएगा तुझ मन में.
पुत्र था उद्दंड अभिमानी,
किंतु बहुत ही था मेधावी,
ऐसी विद्या ना जानी मैंने ,
फिर क्या होगा मेरा भावी.
अहंकार उस मतिशाली का हुआ तुरंत ही चूर,
बोला पिताश्री करें अबोध पर अनुकंपा भरपूर,
करें क्षमा दें ज्ञान अमोलक,
हे तात में हूँ बालक मज़बूर.
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