Tuesday, 5 August 2014

प्रेम (अंकितजी)

प्रेम 
# # #
मुझे कैसे
मिले प्रेम ?
प्रेम तो है
मेरे पास
सदैव
स्वाभाविक
नैसर्गिक....

गिरा देता हूँ
मैं
खोखली
परिभाषाएं
प्रेम की
और
करता हूँ
अनुभव,
प्रेम नहीं है
कर देना
कुछ सुकाम
अन्यों के लिए
या
कह देना उनको
कुछ सुखद शब्द
या
बस मुस्कुराना
और
मुस्कुराते रहना.
प्रेम बस है
प्रेम
केवल प्रेम...

नहीं होता है
प्रयास कोई
पाने हेतु
प्रेम को,
बस होता है
बनाना
स्वयं को
केवल मात्र
प्रेम ……

सदैव,
बनाया है
मैंने
जटिल इसको,
उलझाये रखा है
प्रेम सूत्रों को,
जब कि
है यह
सर्वथा सहज,
सरल……

करता हूँ
मैं प्रेम जब
होता हूँ
केवल प्रेम में
और
होता हूँ
बस स्वयं……

दर्शाता है
प्रेम ही
मुझे
वो बिंदु
वो अबिंदु
जहाँ
होता है
मिलन
मन मस्तिष्क का
तत्त्व से,
सत्व से...

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