Tuesday, 5 August 2014

शैय्या से शमशान : (अंकितजी)

शैय्या से शमशान
# # #
जीवन,
एक साँझा नाटक,
देह और आत्मा का,
जिसे खेल रहें है
हम सब,
संसार के,
विशाल और वृहत
रंग मंच पर....

अपनी रचनाओं में
मैंने,
शैय्या के सुख़
पाने या
ना पाने की
की है बातें
अथवा
शमशान को
बनाया है
मंजिल अपनी...
मेरी हर
ख़ुशी और
गम रहे हैं
बस
भटकते
शैय्या से
शमशान तक....

क्यों
ना जाना
हे प्रभो!
जीवन है कुछ और
वासना और
मृत्यु के
सिवा....

क्यों भूल गया मैं
हे विभो !
जन्म को
प्रेम को,
सौहार्द को,
हर्ष को,
आनंद को,
शक्ति को,
मुक्ति को,
तृप्ति को,
प्रकृति को,
गीत को,
संगीत को,
अगणित तथ्यों को,
जीवन के सत्यों को,
तुम को,
स्वयं को.....

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