छद्म स्वयं को लेकर आया प्रभु तेरे द्वार
# # # # #
मेरे प्रभु !
तुम से मिलने,
मिलन-स्थल को,
निकला था मैं
नितांत अकेला ,
किंतु इस तमस में,
यह एक और 'मैं'
है कौन ???
मैं लाता हूँ,
निज को एक ओर किनारे,
बचने उस-से.
किंतु,
ना प्राप्य है,
उन्मुक्ति उस-से.
मार्ग की धूल,
को उछाल रहा है,
वह अपनी,
उद्दंड वक्र पदचाल से.
मिला रहा है,
विकृत तीव्र स्वर,
प्रत्येक शब्द में,
जो है उच्चारित,
मेरे मुख से,
वह है मेरा,
लघु-निम्न अहम् ,
छद्म स्वयं का
धरे रूप.
नहीं जानता
नहीं मानता,
लेश मात्र भी,
लज्जा को.
मेरे प्रभु !
शरण तिहारी ,
आकर तेरे द्वारे,
संग उस विराट दानव के,
में हूँ घोर लज्जित.
सारॉबार हूँ,
शर्म में और
पश्चाताप में.
[यह कविता गुरुदेव रबींद्रा नाथ टैगोर की एक रचना से प्रेरित है और उसका रूपांतर हिन्दी शब्दों में करने का प्रयास है.गुरुदेव 'सेल्फ़ '( 'स्वयं') के दो भागों को देखते थे: एक- 'ईगो' दूसरा 'स्पिरिट' या सेक्रेड सेल्फ़.यहाँ 'वह ' ईगो को कहा गया है.Ego is demanding,pushy,obsessed with being right and is always in search of more. It never seems to be satisfied. Sacred self is inclined to being peaceful, non-competetive, non-judgemental, and it never makes demands.........अर्थात स्वाभाविक एवं बुनियादी 'स्वयं'.]
No comments:
Post a Comment