हमारी नज़्म
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देख लो
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देख लो
इस ट्रे में
बस चाय की एक प्याली है,
यही तो कहा था तुम ने,
सुबह जब मैं सो रही हूँगी
तुम सिर्फ एक प्याली ले कर आना
घूँट घूँट पियेंगे
हम दोनों...
तुम अब भी उनींदी हो,
बिखरे बिखरे बाल
बेतरतीब सी,
चेहरे पर नूर है
अपने मुकम्मल होने के
एहसास का,
जिसमें बिम्ब है
अस्तित्व का ....
केतली से
उड़ेल रही है तू
भाप उठती
गहरी चोकलेटी चाय,
जो चाय नहीं
आंसू है
जो बहाए हैं
सारी रात हम ने,
लिपट कर एक दूजे से,
ये ही आब-ए-गंगा है
बह गए हैं
जिसमें शुमार हो
हमारे सारे दर्द,
सारी खुशियाँ,
सारी वासनाएं..
जिया है हम ने
जिस्मों से परे
बीती रात के ख्वाब को,
करते हुए महसूस
एक दूजे की रूह को,
युगों से अवरुद्ध
बह गया है सबकुछ
इन चार आँखों से...
ह़र पौर
हमारे जिस्म का
बन गया है रूह,
खामोश है आज
जुबान जिस्म की
करने लगी है
इबादात
रूहानी वुजूद की
दोहराते हुए
आयतें
इख्तिलाज़ में,
रूह ने समझ ली है
ह़र बात रूह की...
कहा था मैने या कि तू ने,
आदम और हव्वा ने
किया था जो,
सजा दी थी
खुदा ने
उस के लिए,
काश वे
रूहों के फलसफे को
पहचानते
जिस्मानी इत्तिहाद से पहले,
पूजे जाते ,
गाये जाते
खुदा बन कर,
मंसूर से पहले ही
गूंजा पाते
अनलहक को,
दुनियां को आगे बढ़ाने को
सब कुछ तो
दे दिया था
पहले से ही
परवरदीगार ने...
आज की इस यादगार
रात ने
रच दिया है
क्षितिज से परे
घर
हमारे सपनों का
जिसमें बसे हैं
ना तुम
ना मैं
हम...हम,
लिए सब रंग
धनक के,
जो रोशन है
एक नूर बन कर
अपने ही
बिना रंग के रंग में...
ना इंकार है
ना इकरार,
है बस एक
कुदरतन मंज़ूरी,
रूह की,
जिस्म की,
वुजूद की,
पाप की,
पुन्य की
और
परे इन सब से
शून्य की...
आओ महसूस कर लें
एक दूजे को
फिर एक बार
उसी तरह,
इसी लम्हें में ,
ना जाने
कल हो ना हो...
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