Tuesday, 5 August 2014

निदान-गृह में-तलाश अंतिम सत्य की : (नायेदाजी)

निदान-गृह में-तलाश अंतिम सत्य की
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आज सुबह
देखी एक सजीली सी
नवेली सी नार
कालिदास की उपमाओं को
जिसका अंग-अंग कर रहा था साकार.

सुहाना लिबास
उसका मृदु हास
देह से प्रस्फुटित
भीनी सी सुवास
कह रही थी
सुखमय है
परितृप्त है.

चेहरे पर झलकता
तस्कीन
आवाज में महकता सकूं
कह रहा था
प्यार देती है
प्यार पाती है.

स्वपनिल आँखे
मुस्काते अधर
सादगी का अंदाज़
रंगों का चुनाव
बयां कर रहे थे
सपने लेती है
और हकीकत को भी जानती है.

सच तो यह है
उस अप्रतिभ सौन्दर्य को
एक रोग निदान केंद्र में
देख कर
में विस्मित था
व्यथित था.

न पूछो कैसे ?
मगर जाना
शिख से नख तक
होंगे परिक्षण
हर अंग के उपांग के
हर ठोस के
हर द्रव के.

वह सुन्दर तन
था पीड़ित
कई व्याधियों से
हो चला था मैं हैरान
और परेशान
उठ गए थे
कतिपय प्रश्न महान.

क्या ऐसे सुन्दर गृह में भी
कोई कुरूप रह सकता है ?
सत्य क्या है ?
देह या आत्मा ?
शाश्वत क्या है ?
जो हम देखतें है
या जो हम जीतें है ?

मैं व्याकुल
समय के प्रतिकूल
भटक रहा था
अंतिम सत्य की तलाश में.

फिर एक दृश्य:


वहीँ मिल गए
एक वैरागी
होंगे कोई सदानंद
या सद्चित्तानंद
या कोई और आनंद
पर विहीन आनंद से
चेहरे पर तनाव
मन में दुश्चिंता
सोच बस एक ही लिए
अब क्या होगा. ?

देह का चिंतन छोड़
आत्मा को जानने
परमात्मा को पाने
जन जन को जगाने निकले
इस पथिक को जब
देह-चिंता में डूबा देखा
उठ गए थे फिर से
कतिपय प्रश्न महान.

क्या जोगिया लिबास में
एक भ्रमित मानव रह रहा है ?
सत्य क्या है?
यह त्याग या वह भोग ?
यह भागना या वह जीना ?

में व्याकुल
समय के प्रतिकूल
पुन: भटक रहा था
अंतिम सत्य की तलाश में.

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