Sunday 10 August 2014

सर्वोत्तम मित्र : गीता से (नायेदाजी)

सर्वोत्तम मित्र  : गीता से 


गीता का श्लोक  : 

Uddharedatmanatmanam natmanamavasadayet !
atmaiva hytmano bandhuratmaiva ripuratmanah !!6/5!!

Whether one attains elevation or degradation through one's mind depends on oneself only, for the mind can be one's friend or one's foe.

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मनुज करे उत्थान स्वयं का,
करे वर्जित अधिपतन स्वयं का,
परम मित्र बने स्वयं का,
परम शत्रु संभावित स्वयं का.

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गीता छठे अध्याय का यह पाँचवाँ श्लोक अपने आप में एक पूरी विधा है…..हमारे मानसिक एवं भौतिक विकास का मूल मन्त्र इसमें निहित है.

यह हुमें अपने में झाँकने को प्रेरित करता है….आत्मसंतुलन का आवाहन  कर रहा है. एक उक्ति है, “निज पर शासन  फिर अनुशासन” हमारा सर्वाधिक ‘नेग्लेक्टेड’ पहलू 'स्व' ही होता है. बहुत दफ़ा हम “अहम” को अज्ञानवश 'स्व' का पर्याय समझ बैठते हैं और खुद को ऐसे रास्तों पर भटका देते हैं जहाँ से लौटना मुश्किल होता है.

मनुष्य का मस्तिष्क सृजनता की शक्ति से संपन्न होने के साथ ही चंचलता एवं संशय  के श्राप से भी ग्रसित है. एक संतुलित और जागरूक मस्तिष्क  हमारा परम मित्र होता है और इसके विपरीत अवस्था में होने वाला मस्तिष्क हमारा परम शत्रु सिद्ध होता है. स्वयं का उत्थान करने के साथ हम दूसरों के प्रति प्रेम और परवाह (care) रख कर उनके साथ विचारों एवं अनुभूति का तादात्म्य स्थापित करते हैं जो सहज़ रूप से उन्हे मानसिक शांति पहुँचाता है.

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