Tuesday, 5 August 2014

रिश्ते (नायेदाजी)

रिश्ते
# # #
रिश्तों को देखा है
मैंने
गौर से......

एक रिश्ता है
‘मैं' और ‘यह’ का,
जिसमें दूसरे को
बना देतें हैं महज़
‘वस्तु’,
एक बेजान सी
वस्तु
स्वामित्व जिसका
बन जाता है
रिश्तों की
पराकाष्ठा ,
नहीं किया जाता
आदर
दूसरे का
ह्रदय से
शर्तों से
भरा होता है
यह रिश्ता
जिसमें
प्रेम कम
मालिकाना
जूनून
होता है
ज्यादा,
हर ख़ुशी के पीछे
छुपा होता है
दर्द,
लाखों इन्सान
जिये जा रहे हैं
इन रिश्तों को
या मरे जा रहे हैं
इन रिश्तों में,
कर रहें हैं बर्बाद
खुद को
खुदाई को
उलझे हुए
धागों की तरहा......

एक और
रिश्ता है
‘मैं’ और
‘तुम’ का,
ऐसा रिश्ता
जीतें हैं जिसे
प्रेमीजन
करतें हैं
सम्मान
इक-दूजे का ,
करतें हैं विकास
दोनों ही,
करते हुए
संपन्न
एक-दूजे को,
नहीं समझा जाता
दूसरे को
इस्तेमाल और
उपभोग की
वस्तु,
सोचा जाता है :
'देना'
'पाना'नहीं,
ऐसा रिश्ता
होता है
तुल्य
प्रार्थना के
उपासना के..

होता है
एक तीसरा
रिश्ता भी,
जो शायद
होता नहीं
‘एक रिश्ता’,
नहीं होता है
उसमे
‘मैं’ और
‘यह’
और ना ही
'मैं’ और
‘तुम’,
बस होता है
सब
एकमेक सा,
जीते हैं दो
एक हो कर,
बन जातें है
चरम आनन्द,
घटित होती है
स्थिति ऐसी
जिया करते हैं
जिसे
आध्यात्मिक
रहस्यदर्शी,
पाने को जिसे
रहतें है रत
‘ध्यानी’
और
अवधानी...


(Inspired by a 'talk' of a great mystic.)

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