Tuesday 5 August 2014

कशमकश : (अंकितजी)

कशमकश
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रौशनी के अँधेरे
आँखों की राह से
चेतना की परतों में
समाये जा रहे हैं

मौन भी ,
कुछ कहता बोलता सा लगता है
शब्दों के मायने ,
कुछ और ही लगते जा रहे हैं

कशमकश के ये दौर
दूज का चाँद बन ,
अँधेरी काली रात में भी
पूनम की आस जगाये जा रहे हैं

कहने सुनने को ,
माप राहें हैं
सुनने न जाने ,
क्या कहे जा रहे हैं

आओ कुछ पल ,
मिल कर ,
कह सुन लें

तुम कहो ....मैं बोलूं ,
मैं सुनूँ .....तुम भी सुनो ,
जो भी हो शुरुआत ,
हो बस अपनी....बस अपनी ,
न तेरी ..न मेरी


ए मेरे हमसफ़र ,
जरा झाँक तो ले
मेरे दिल के आईने में
खुदा के दिए ये चंद दिन ,
बस यूँही बीते जा रहे हैं ....

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