विरहन...
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ना ख्वाब में
देखा था
मैं ने,
दर पे मेरे
वो
खड़ा था...
ना मुंदी थी
पलकें मैं ने
रातें कितनी
बीत गयी थी,
उसके आने के
लम्हे में
नींद निगौड़ी
जीत गयी थी,
कौन जगाता
मुझ को
उस पल,
अंधेरों का
पहरा
कड़ा था...
शबिस्तां में
जलती शम्मा
काश मुझ को
कह जगाती,
खोल आँखें
नादाँ अपनी
पीव आने की
खबर बताती,
चाभी थी
तकिये के नीचे,
ताला
दरवाजे पे
जड़ा था..
चला गया था
हाथ से
वो वस्ल का
मौका अनूठा,
क्या करूँ
मेरे ही चलते
मेरा मुकद्दर
मुझ से था रूठा,
रही विरहन ही
सदा मैं,
सितारों का
फेरा
पड़ा था...
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