Friday, 1 August 2014

हार...(मेहर)

हार...

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बनाया है 
मैंने अपने 
गीतों का यह हार 
पिरो कर 
अनुभूतियों से
बने 
अदृश्य धागे में
दिव्य शब्दों के
मोती पिरो कर,
प्रस्तुत है 
सम्मुख मेरे
स्वर्ण रत्न जडित
कतिपय
हृदयहीन मूर्तियाँ,
किन्तु 
मेरी दृष्टि में है 
कोई ऐसा
जो दिए जाता है
टुकड़े,
अपने हिस्से की रोटी के
अपरिचित
रूग्ण और जीर्ण  
विभुक्षितों को 
जो रह गये हैं
अनदेखे 
और 
पड़े हैं 
निस्सहाय 
मंदिरों के
गोपुरम की 
आधी अधूरी 
छाँव में 
मैली मैली सी  
श्वेत संगमरमरी  
सीढ़ियों पर !

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