Friday, 1 August 2014

मिलन की आस...(मेहर)

मिलन की आस...
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छोड़ सजन के नयन 
किया था दर्पण का विश्वास...

सोलहों सब सिंगार किये मैं
यौवन रूप निरखती थी, 
दर्पण के बोलों से ऐ सखी,
स्वयं को मैं परखती थी,
प्रतिबिम्ब छला करता था बिम्ब को,
कैसा था प्रहास...

खुद की क़सर खुद को ही कहती
शंका सौतन बन कर रहती,
खुद में घुटती और तड़फती,
घिरी कशमकश से मैं रहती,
मृग ज्यों मरीचिका को लखती,
बुझी ना मेरी प्यास...

अपनी रीझ खीज में ऐ अलि,
भूल गयी मैं निज का मोल,
दिखा रही थी कांच कुटिल को,
आवृत अवयय खोल,
ना जाने उस छलिया के संग,
कितने हुए विलास...

छली गयी मैं  सब के हाथों
शीश लगा कर यह कैसा सिंदूर,
दर्पण दर्शक बन बैठा था
मैं दर्शक मजबूर,
साध्य नहीं साधन को चुन कर
बेचे थे एहसास....

तुम जो गये, लौट  ना आये,
मिल कर भी तुम मिल ना पाये, 
राह तकूँ आज भी तेरी,
स्वप्न मेरे साकार हो जाये,
समय अल्प है सफ़र है लम्बा,
लिए मिलन की आस...

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