Saturday, 2 August 2014

माटी ...(मेहर)

माटी  
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चढ़ कुम्हार के चाक 
कब रह सकी 
माटी  वैसी की वैसी...

कभी बनी गगरी
कभी बनी सुराही 
दीपक बन उतरी कभी वो
बनी कभी पतीली,
लिखा भाग्य में उसके तो है 
जलना और झुलसना 
आग अलाव की में पक पक कर
कुछ ना कुछ तो बनना...

युग युगांतर से खेली जाती 
संग माटी क्रीड़ायें कैसी,
चढ़ कुम्हार के चाक 
रह सकी कब 
माटी वैसी की वैसी...

कोई पनघट कोई मरघट
कोई जलती बाती पायेगा,
अपने अपने बंधे करम को भोग
स्वयं फिर माटी बन जाएगा, 
रीत रिवाज़ पूजा इबादत
ईद और होली कैसी,
चढ़ कुम्हार के चाक पर
कब रह सकी 
माटी  वैसी की वैसी...

अज्ञानी नादान ठीकरे 
ना जाने/गति करमों की 
अनहोनी को मान के होनी,
पहने माला भरमों की,
काल प्रवंचक लेगा खोल
खिड़की चाहे हो कैसी,
चढ़ कुम्हार के चाक
कब रह सकी 
मिटटी वैसी की वैसी...

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