सूखा....
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जमीन
बीवी एक
बेचारी,
आसमां
शौहर एक
बदचलन
मनमौजी,
नहीं हुयी
हामला
रुत में
जमीं,
और
पड़ गया
सूखा,
जल गयी
हरयाली,
मर गये
जानवर
चारों जानिब,
सज गयी
दावतें
गीदों की,
चल निकले
मर्द और औरत
करने को
मजदूरी
इंतज़ाम-ऐ-राहत में,
तपिश थी
तेज़ धूप की,
चल रही थी
लू और आंधियां,
सो रहे थे
मासूम नौनिहाल
सरकंडों की
छाँव में,
सूख गया था
दूध
माँओं की छातियों से,
करा रही थी चुप
उनको
बहलाकर
घोल कर
पानी में आटा,
होते थे
लथ-पथ
पसीने में
कामगार,
सुड़कते थे
बीड़ियाँ
चुरा कर
चन्द लम्हे
आराम के खातिर,
गिनते गिनाते
उँगलियों पर,
आएगा
फिर कब
सावन
और
होगी तब
कोख हरी
माँ की...
(एक राजस्थानी कविता से प्रेरित)
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