Friday, 1 August 2014

हस्सास- (२) (मेहर)

हस्सास- (२)  
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सो गयी थी जमीं,
भूला गया था
सूखापन
दरारें,
अकेलापन,
तू जो चला आया था 
ख्वाब में मेरे...

उठ रहे थे गर्म गुबार
दर्द की भाप के,
छाये जा रहे थे 
गहराए जा रहे थे
अक्स प़र तेरे....

बरस गया था
बेतहाशा तू,
बन कर बादल
आबे हयात का
वुजूद प़र मेरे...

मुझे तो एहसास ही नहीं था
कुछ गरजा था या के  नहीं 
छाई थी घटायें या के नहीं 
एक समंदर अबोला सा 
उतर गया था 
 कायनात की खामुशी से
होले से समा जाने को 
अंतस में मेरे...

मैं तो डूबी थी
नींद में या के ख्वाब में,
कैसे होता इल्म मुझ को,  
क्यों चमके थे कांच 
बन्द दरवाजों के,
चली गई थी कहाँ गर्द 
जमी थी दरीचों पे मेरे...

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