Friday, 1 August 2014

आओ ना....(मेहर)

आओ ना....
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झर झर 
झरते 
नयन निर्धन
बन गया
स्वप्न है 
जीवनधन...

खिल खिल 
गिरते 
सुरभित सुमन
कहाँ 
उन्मन
उपवन का मन...

छाये 
बिखरे हैं 
मेघ सघन 
किन्तु
स्वयं में 
मगन 
गगन....

तृण सम 
कृश कैसा 
अपनापन
संग लिए 
उड़ी है 
तीव्र पवन.. 

सतत पुकारे 
यह तन मन 
आओ ना 
निर्दय 
निठुर* सजन....

*निष्ठुर के लिए प्रयोग किया है. 

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