दूसरा किनारा....
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याद आ रही है तेरी-मेरी मुलाकातें,
ना ख़त्म होनेवाली हसीं सी वो बातें,
वो शिद्दत के ज़ज्बे वो रूठने मनाने,
मिलने के दिन वो जुदाई की रातें.
सोचा था किसने आएगी इक आंधी,
ले जाएगी वो आसें जो हमने थी बांधी,
फैसला बेअमन का दिन अमन को हुआ था,
क़ुरबानी में उस दिन खूं अपना बहा था.
वक़्त ने ना जाने क्या कर दिखाया,
जो पाया था खोया, खोये को पाया,
कहूँ किसको दिल की ये बातें पुरानी,
आशियाँ मैंने मेरा खुद ही जलाया.
ज़ख्म झेले जो मैंने टीसतें वो हैं अब भी,
मरहम है ना जिसकी क्या सूखेंगे कब भी,
दर्द-ओ-दुःख का फर्क रह गया है अजाना
होता है हर इक का अपना ही पैमाना.
चमन में जब भी मौसम-ए-खिज़ां आया,
तसव्वुर जाना ले कर बाहारें आया.
मिला था तुम से जो इश्क का सरमाया,
तन्हाई में उसने मेरे अश्कों को सहलाया.
जुदाई है ए दोस्त ! मिलन अब हमारा,
पुकारे कितना भी यह दूसरा किनारा,
खताए हुई मुझ से ये मैं मानती हूँ,
समझते हो नज़र मेरी ये मैं जानती हूँ.
वक़्त ही दवा है, बस वक़्त ही दुआ है,
मौत से जियादः कभी कुछ हुआ है,
रूह ला-ज़वाल, मरता बस बदन है,
अगले जन्मों का अब मेरा भी चलन है.
खुश हूँ की तू भी हर दम मुझे सोचता है,
परछाईयां मेरी तू हर जगह देखता है,
हो गयी है मोहब्बत हर ज़र्रे से तुझ को,
महबूब मेरा ऐसा है गुरुर आज मुझ को.
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