समा लो ऐ जलधि मुझ को...
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बस एक बार
सुनना चाहती हूँ
तेरे भूले बिसरे गीत,
जब तुम नहीं होते प्रिय
बन जाते वो मेरे मीत,
भूला दिया
जो कुछ तुम ने
याद है किन्तु मुझ को...
डूब चुकी मैं
सघन भंवर में
भूले सब कूल कगार,
चाहत के थपेड़े क्योंकर
ऊपर ले आते बारम्बार
शायद दिखो
खड़े साहिल पर तुम
पुकारते बस मुझ को....
तड़फती है रूह मेरी
सुनने को वो पहली तान,
झील किनारे
छेड़ी थी तुम ने
मुझ को अपना सपना जान
इठलाई थी ग़ज़ल मुकम्मल
बीणा झंकाते
देख रहे थे तुम बस मुझ को...
लहरा दो ना बिछड़े साथी
पद वे भूले संगीत के,
गाओ ना मेरे खातिर
तराने उस मधुर गीत के,
भटक जाये फिर सुधि का पंछी
सरगम के आकाश में,
लय का मदिर मीठास
कर रहा है मुग्ध मुझ को...
लौटा दो ना फिर से तुम
खोये हुए अतीत को.
प्राण दान दे दो ना साजन
पथराई इस प्रीत को,
उकसा दो ना गीतों से
मेरे अगीत को
बन्द सारे मंज़ूर मुझ को...
उलझ गयी मैं
अगम सत्य से
अल्प मान विस्तार को,
नाव खोल दी थी मैंने
समझ नदी तुम पारावार को
बूंद बन हुई हूँ हाज़िर
समा लो ऐ जलधि मुझ को...
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