Friday, 1 August 2014

डोर है एक बहाना......(मेहर)

डोर है एक बहाना......
########
मूल्य मुक्त हो,चाहती प्रीतम
मैं अमूल्य को अपनाना,
सब कुछ तुम पर वारा साजन
कभी ना मुझ को ठुकराना...

संशय-निश्चय के अंतर द्वन्द में 
हुआ अवरुद्ध पथ निज विकास का,
क्षितिज बनी है मृग मरीचिका,
विस्तार असीम तो है आकाश का,

समय अखंडित,  यही सत्य है 
भोर सांझ में क्यों भरमाना....

भौतिक अपूर्ण अकिंचन देता 
उत्तेजित भावों का आभास, 
बांध सके अनन्त को गाढा 
किन शब्दों का पाश,

कुम्भ कूप तक पहुँचाने का 
डोर है एक बहाना......

अनायास अपरिचित प्राप्य को 
दे दी थी मैंने पहचान 
नग्न सत्त्व ने 
क्यों पहना था पञ्चभूत परिधान.

छुड़ा तुला के नागफांस को,
छोर अमूल्य का पकडाना...

(प्रीतम से आशय ईशतत्व से है जो तब अनुभव होता है जब प्रेम प्रार्थना बन जाता है

No comments:

Post a Comment