अर्थी विश्वास की....
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आज की इस उजली सुबह से
दिलकश कल की रात थी....
क्यों चाहा था मैंने बांधना
सूरज को अपने पल्लू में,
क्यों चाहा था मैंने समेटना,
जलधि को अपने चुल्लु में,
आज बनी मैं नदी बरसाती
होती कभी प्रपात थी,
आज की इस उजली सुबह से
दिलकश कल की रात थी...
आज घनों से घिरा है यह दिन
गगन तिरोहित सत्य है ओझल,
निशा स्वप्न रह गये अधूरे
नींद से है बस नैना बोझिल,
जन जन के मुख आन विराजी
जो कल तक मेरी बात थी,
आज की इस उजली सुबह से
दिलकश कल की रात थी...
मेरे प्रपंचों के कन्धों प़र
अर्थी विश्वास की चली जा रही,
अमृत के सुदृढ़ तरु प़र
विषलता है फली जा रही..
आज हो गया वो भी पराया
कल तक जिसके साथ थी,
आज की इस उजली सुबह से
दिलकश कल की रात थी...
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