परस्तिश
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अरे औ कठोर पत्थर !
बन गया है
यक ज़रिया तू
मेरे नर्म एहसासों के
इज़हार का,
छैनी नहीं
मेरी कलम
उकेर देती है
तुझ को
मेरी ही नज्मों में,
बावज़ूद
लाख रुकावटों के
हो जाता है
मुझ को
दीदार तेरा
मेरी ही बनायीं
मूरत में
और
कर लेती हूँ
तुम्हारी
मुकम्मल
परस्तिश
इस तरहा...
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