Saturday, 2 August 2014

क्यूँ ? (मेहर)

क्यूँ ?

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आज में
छुपे छुपे से
क्यूँ
बीते कल के
एहसास,
बन गये
शुबहे
क्यूँ
कल तक थे जो
भरोसे के
एहसास ?

भर गये हैं
ज़ख्म
मगर
बाकी क्यों
यह टीस,
अभिशाप सी
लगने लगी
क्यूँ
बीते कल की
आशीष ?

श्राद्ध कर
संबंधों का
हम ने
पायी थी
एक निजात,
फिर से
निकली आहें
दिल से
हुए क्यूँ
ऐसे
नाज़ुक
हालात ?

थम गये थे
नगमे मेरे
रह गयी फिर
क्यूँ
गुंजन की
एक चाह,
रुक गया था
पंथ
मगर
क्यूँ
कायम है यह
कदमों की
एक राह ?

बुझी प्यास ने
बनकर पंगु
थाम लिया है
दामन
तशनगी का,
काटे जा रहा
हमें
क्यूँ
तसव्वुर
इक
वीरानगी का ?

बुझ गये
अंगारे
राख में
गर्माहट है
क्यूँ
बाकी,
लूटे
मयखाने
टूटे
पैमाने,
मौजूद यहाँ
क्यूँ
साकी ?

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