रंग और अश्क बन गये अमृत
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पतझड़ में
सूना था गुलशन
बहार के एहसास भी
गिर चुके थे
सूखे पत्तों के संग.
लगा था
मौसम बदल रहा है
नयी हवाएँ नयी कोंपलें
फिर से खिला रही है
उजड़े दयार को.
रिश्तों के रखाव की दौड़ में
गढ़ लिए थे चंद मायने,
जो सच के इतने करीब थे
कि उसकी परछाइयाँ बन
सच ही लगने लगे थे.
जो भी रंग भरे थे फ़ज़ा में
धुल गये थे सारे
तेज बारिश की बौछार में
या पैनी हवा के झोंकों ने
उड़ा डाला था इन सूखे
बेमेल रंगो को.
हरे दरिया के किनारे
पतली हवा में
बकुल की खुशबू लिए
कोयल की कूक ने जब
पैगामे जिंदगानी दिया
दर्द के अश्कों ने
घोल कर रंगों को खुद में
बना दिया था
अमृत प्रेम का
जो बंटेगा
सारे जहाँ में.
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