Monday 4 August 2014

अर्धांग (नायेदाजी)

अर्धांग....
लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व तमिल महाकवि इलंगोवन ने, जो एक बौद्ध भिक्षु भी थे, ‘शीलप्पदिकारम ’ नामक महाकाव्य की रचना कि जिसमें मानवीय सम्बन्धों, और प्रेम त्रिकोण कि बात है…पुरुष है व्यवसायी कोवलन, दो नारियां हैं माधवी (वेश्या) और कन्नगी (कोवलन की पत्नी). माधवी कालांतर में मानसिक अवसाद(depression) से ग्रसित हो जाती है. माधवी इलंगोवन को अपनी बात कहती है, जो इसी काव्य पर आधारित अमृत लाल नागर जी के उपन्यास ‘सुहाग के नुपुर’ का समापन कथ्य भी है.
प्रस्तुत कविता माधवी के उस कथन को अभिव्यक्त कर रही है.
____________________________________________________________________
# # #
पुरुष दंभ और
स्वार्थ ने
पापों को किया
उदित, भंते !
इसी मूढ़ता से
अति पीड़ित
मानव अर्धांग था
व्यथित, भंते !

दृष्टि रही
एकांगी
नर की
सती को
आदर
दे ना सका,
वेश्या बना
अठखेल किये
सुख कदापि
दे ना सका.

पुरुष स्वयं
अस्थिर बुद्धि
खाये
झंकोले
घोर, भंते !
करे न्याय
कृन्दन
नारी रूप धरे,
अश्रु में
दीखते
जल अगन
दो प्रलय
कठोर, भंते !

मैं नारी हूँ
मैं हूँ नारी
करुणा
प्रेम
सर्वांग, भंते!
किन्तु
सदियों से
मैं हूँ बनी,
मानवता का
व्यथित
अर्धांग, भंते !

No comments:

Post a Comment