बदरी बिन नाचे मयूर !
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है धरा मूक
वघिर आकाश
गिन गिन के हैं
श्वास निश्वास
संगी संशय का
बना विश्वास,
अलि री, यह कैसा सबूर
बदरी बिन नाचे मयूर !
कंठ दरिया के
अनबुझी प्यास
अनसुअन का
होता उपहास
मिलकर तट से भी
लहर उदास
कैसा नशा कैसा सुरूर
बदरी बिन नाचे मयूर !
कैसे कैसे
हैं एहसास
खुद को नहीं
खुद का आभास
तिमिर से
हारा प्रकाश
कौन किस से है मजबूर
बदरी बिन नाचे मयूर !
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