Friday, 1 August 2014

बदरी बिन नाचे मयूर ! (मेहर)

बदरी बिन नाचे मयूर !
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है धरा मूक 
वघिर आकाश 
गिन गिन के हैं 
श्वास निश्वास 
संगी संशय का
बना विश्वास, 
अलि री, यह कैसा सबूर
बदरी बिन नाचे मयूर !

कंठ दरिया के 
अनबुझी प्यास
अनसुअन का 
होता उपहास
मिलकर तट से भी
लहर उदास 
कैसा नशा कैसा सुरूर 
बदरी बिन नाचे  मयूर !

कैसे कैसे 
हैं एहसास 
खुद को नहीं
खुद का आभास 
तिमिर से 
हारा प्रकाश 
कौन किस से है मजबूर 
बदरी बिन नाचे मयूर !

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