Monday 4 August 2014

उफने दरिया के रुख़.......(नायेदाजी)

उफने दरिया के रुख़.......
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कई मसाइल-ओ-हल अब निकलने है
उफने दरिया के रुख़ हमें बदलने है.

रखे चलते हैं कफ़न हथेली में
क्या फ़िक्र जो उनके तेवर मचलने है.

सितम सह कर  भी मुस्कुराते हैं हम
तीर कितने यूँ तरकश से निकलने है.

सच मानो हर्फे मुबीन है मेरे सपने
खुली आँखों में यही सफ़र चलने है.

शम्मा की मंदगी से क्यूँ है तआज्जुब 
जलवा-ए-आफताब भी आख़िर ढलने है.

हर शै को होनी है हासिल अपनी ही सूरत
हदीस-ए-यार के उन्वान भी निखरने  है.

क्यूँ सोचते रहते हैं हर लम्हे तुझको
इस तरहा क्या यादों के ज़ख़्म भरने है.

शुआएँ लिपटी सी क्यूँ है दरखतों से
हर जानिब कासिद-ए-खिजां लपकने है.

(मंदगी=बुझना,  हरफ़-ए-मुबीन=स्पष्ट, मसाइल=समस्याएँ
हल=समाधान,  हदीस-ए-यार=प्रेमी की बातें, शुआएँ=किरने, दरख़्त=पेड़
जानिब=तरफ कासिद=पत्रवाहक,मेसेंजर, खिजां=पतझड़)

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