Friday, 1 August 2014

रौशनी की एक लकीर..(मेहर)

रौशनी की एक लकीर..
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माना कि 
कर दिए हैं बंद 
तू ने 
हर खिड़की 
और 
दरवाज़े मेरे लिए,
मगर 
जानते हो तुम कि 
खोज लेती है 
रौशनी 
कोई न कोई झिर्री
अन्दर तक 
पहुँचने के लिए,
और 
एक पैनी 
लकीर बन कर 
समां जाती है 
कोई चाहे 
या ना चाहे..

सुनो 
देखा किया था 
तुझ को
कल रात
भोर से पहले के 
ख्वाब में,
पी रहे थे 
मेरे लब तेरे 
हर दर्द को,
देकर छुअन
मेरे वुजूद की, 
आहिस्ता आहिस्ता 
रफ्ता रफ्ता 
समाये जा रहा था 
तेरा सब कुछ 
मुझ में,
और दे दिया था 
मैंने 
अपना सब कुछ,
सुलाने तुझ को
एक राहत भरी 
गहरी सी नींद में...

महसूस है
मुझ को 
तेरे हर दर्द के 
एहसास,
गर है  
कोई खुदा तो 
बस एक ही है 
चाहत मेरी
तेरे हर दर्द को 
वो मेरा कर दे,
मेरी हर 
ख़ुशी ओ सुकूँ को
तुझ को दे दे, 
तू शायद 
माने ना माने 
आज भी हम 
जी रहे हैं 
इक दूजे के लिए...

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