Tuesday, 5 August 2014

दर्पण का अजनबी प्रतिबिम्ब : (नायेदाजी)

दर्पण का अजनबी प्रतिबिम्ब 
कैसी विडम्बना होती है जब व्यक्ति खुद को अपने ही घर में अजनबी महसूस करने लगता है.........ऐसी ही एक मित्र का मनोविश्लेषण करने का अवसर मिला......इस रचना के मध्यम से आपके साथ शेयर कर रही हूँ.
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मैंने देखा
उस दिन
दर्पण में
प्रतिबिम्ब
अपना
और
लगा था मुझको
हो गयी हूँ मैं
अजनबी
अपने घर में ही नहीं
खुद से भी,
जाना पहचाना सा था
वो चेहरा
मगर भाव थे
अपरिचित से...

हुआ था
क्योंकर ऐसा ?
मैंने निज के
अधूरेपन
और
खालीपन को
भरने के बजाय
प्यार से
मुझे भरपूर प्रेम
और सम्मान
देनेवाले के.
छेड़ी थी
मुहीम मैंने
उसको
विजित करने की
अनधिकृत
स्वामित्व के
संयोजन से...

किया था
दुष्प्रयास मैंने
बांधने का
उसको
अपने शासन की
कठोर डोर में,
किया था
हरण मैंने
उसके स्वातंत्र्य का...

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