जीवनांशी
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(अंशी शब्द के दो अर्थ है--पहला है 'भागीदार'और दूसरा है 'सम्पूर्ण'/'सामर्थ्यवान' रचना के प्रथम बन्ध में 'अंशी' के लिए क्रमशः इन्ही अर्थों का प्रयोग है)
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'अंशी' नहीं होना है
मुझको
मेरी आकांक्षा
'अंशी' होना,
फिर क्यूँ
मात्र काव्यांशी होना
कैसा पाना
कैसा खोना
कैसा हँसना
कैसा रोना,
नव रस हो कर
व्याप्त तुम्हारे
जीवन में
होना चाहती हूँ,
तेरे सृजन सरित-प्रवाह में
सुनीर सदृश
बहना चाहती हूँ,
आधि व्याधि उपाधि
प्रतिपल
संग तेरे
रहना चाहती हूँ,
स्व तन मन से,
प्रियतम मेरे
जीवनांशी
होना चाहती हूँ..
वो लखना तेरा
गहन कनखी से
खोना मेरा
चपल स्वपन में,
अकारण ही
हँसना मुस्काना
रातों जगना
नींद गंवाना,
बालिश लिपटाये
तुम्हे सोचना
श्वास श्वास
तुम्हे भर लेना,
बन भोर का तारा*
मुझ से मिलने
चुपके से
तेरा आ जाना,
प्रियतम !
वो ही दृश्य मनोरम
आज पुनः
जीना चाहती हूँ,
तेरे सुखद आलिंगन में ;
तदनंतर
बेसुध हो
सोना चाहती हूँ..
स्व तन मन से,
प्रियतम मेरे
जीवनांशी
होना चाहती हूँ..
*शुक्र
अगला शब्द : बेसुध
_____________________________________________
सृजन में नव रस का समावेश होता है.. भावाभिव्यक्ति के आयाम होते हैं ये नवरस : श्रृंगार,हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवम शांत. वात्सल्य और भक्ति को भी क्रमशः दसवे और ग्यारहवें रस के रूप में माना गया है. मैंने श्रृंगार, जिसका भाव रति होता है, का प्रयोग इस रचना में किया है. जो बाकी रस हैं उन्हें भी आशु कविताओं के साथ दिये हुए शब्दों का प्रयोग करते हुए और इसी पैटर्न में ढालते हुए, आप और मैं कोई भी समय समय पर प्रस्तुति कर सकते हैं, मेरा विनम्र सुझाव है.
रस और भाव की तालिका संलग्न है.)
___________________________________________
रस का प्रकार/ स्थायी भाव
1.श्रृंगार रस/ रति
2.हास्य रस/ हास
3.करुण रस/ शोक
4.रौद्र रस/ क्रोध
5.वीर रस/ उत्साह
6.भयानक रस/ भय
7.वीभत्स रस/ घृणा, जुगुप्सा
8.अद्भुत रस/ आश्चर्य
9.शांत रस/ निर्वेद
वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं।
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(अंशी शब्द के दो अर्थ है--पहला है 'भागीदार'और दूसरा है 'सम्पूर्ण'/'सामर्थ्यवान' रचना के प्रथम बन्ध में 'अंशी' के लिए क्रमशः इन्ही अर्थों का प्रयोग है)
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'अंशी' नहीं होना है
मुझको
मेरी आकांक्षा
'अंशी' होना,
फिर क्यूँ
मात्र काव्यांशी होना
कैसा पाना
कैसा खोना
कैसा हँसना
कैसा रोना,
नव रस हो कर
व्याप्त तुम्हारे
जीवन में
होना चाहती हूँ,
तेरे सृजन सरित-प्रवाह में
सुनीर सदृश
बहना चाहती हूँ,
आधि व्याधि उपाधि
प्रतिपल
संग तेरे
रहना चाहती हूँ,
स्व तन मन से,
प्रियतम मेरे
जीवनांशी
होना चाहती हूँ..
वो लखना तेरा
गहन कनखी से
खोना मेरा
चपल स्वपन में,
अकारण ही
हँसना मुस्काना
रातों जगना
नींद गंवाना,
बालिश लिपटाये
तुम्हे सोचना
श्वास श्वास
तुम्हे भर लेना,
बन भोर का तारा*
मुझ से मिलने
चुपके से
तेरा आ जाना,
प्रियतम !
वो ही दृश्य मनोरम
आज पुनः
जीना चाहती हूँ,
तेरे सुखद आलिंगन में ;
तदनंतर
बेसुध हो
सोना चाहती हूँ..
स्व तन मन से,
प्रियतम मेरे
जीवनांशी
होना चाहती हूँ..
*शुक्र
अगला शब्द : बेसुध
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सृजन में नव रस का समावेश होता है.. भावाभिव्यक्ति के आयाम होते हैं ये नवरस : श्रृंगार,हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवम शांत. वात्सल्य और भक्ति को भी क्रमशः दसवे और ग्यारहवें रस के रूप में माना गया है. मैंने श्रृंगार, जिसका भाव रति होता है, का प्रयोग इस रचना में किया है. जो बाकी रस हैं उन्हें भी आशु कविताओं के साथ दिये हुए शब्दों का प्रयोग करते हुए और इसी पैटर्न में ढालते हुए, आप और मैं कोई भी समय समय पर प्रस्तुति कर सकते हैं, मेरा विनम्र सुझाव है.
रस और भाव की तालिका संलग्न है.)
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रस का प्रकार/ स्थायी भाव
1.श्रृंगार रस/ रति
2.हास्य रस/ हास
3.करुण रस/ शोक
4.रौद्र रस/ क्रोध
5.वीर रस/ उत्साह
6.भयानक रस/ भय
7.वीभत्स रस/ घृणा, जुगुप्सा
8.अद्भुत रस/ आश्चर्य
9.शांत रस/ निर्वेद
वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं।