Sunday, 25 August 2019

प्रश्न रुक्मिणी के ऋषि दुर्वासा से : विजया




प्रश्न रुक्मिणी के ऋषि दुर्वासा से....
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ऋषि थे आप तो
ज्ञाता शास्त्रों और  धर्माचार के
मार्गदर्शक समाज के
विद्वान ब्राहमण त्राता सर्व पाप के
फिर भी ऋषिवर !
क्रोध इतना ?

आये थे विवाहोपरांत
हम नवदम्पति
करने निमंत्रित स्वगृह आपको
देने को आदर हृदयत:
पाने को आशीर्वाद,
किंतु सहमति भी आपकी
ऋषिवर !
थी सशर्त क्यों ?

देने को मान
आपकी मनसा को
सम्मान स्वप्रेमी के वचनों को
निबाहने को सम्बंध जीवन साथी संग
जुत गयी थी मैं कोमलाँगी
अश्व का स्थानापन्न बन रथ में
हुए थे आरूढ़ सदम्भ आप
किंतु नहीं कचौटा था क्या
ऋषिवर !
पवित्र मन आपका ?

खींचे जा रहे थे रथ हम युगल
लथपथ स्वेद में
सहते हुए वेदना निरर्थक श्रम की,
लगी थी तीव्र प्यास मुझ को
देखा ना गया था दर्द मेरा प्रियतम से...
बहा दी थी कुरेद कर धरा को
अपने बलिष्ठ अंगुष्ट से
शीतल गंगधार श्रीकृष्ण ने
पहुँची थी अनायास जो
मेरे मुख और कंठो तक,
ऐसे में कैसे पूछ पाती
ऋषिवर !
आपको मैं जल हेतु ?

असीम अहंकार
दमन से उपजी कुंठाएँ
परिलक्षित थी आपके व्यवहार में
नहीं सोचा था तनिक भी आपने
देने में अतिभार रथ चालन का
हम निरीह युगल पर,
शाप हमें दीर्घ वियोग का
भूमि को भी बंजर योग का
कैसे दे पाए होंगे आप
ऋषिवर !
होकर नितांत संवेदन शून्य ?

मुझ स्त्री ने  ही की थी घोर तपस्या
पाने को मुक्ति वियोग श्राप से
किंतु फिर भी
भुगत रही है दंड आज भी
प्रस्तर आकृति मेरी
प्रिय मंदिर से दूर रह कर,
कैसा है यह न्याय
ऋषिवर !
आपका और आपकी
इस छद्म उदारमना संस्कृति का ?

बहु आयामी,,,,



बहु आयामी,,,,
########
बहुआयामी है ना कृष्ण !
बता तो दे कोई मुझे 
मानव ऐसा 
जो नहीं पड़ेगा कृष्ण प्रेम में,
होते ही तनिक सा भी 
एहसास प्रेम का
खोज लेगा वह 
कुछ ना कुछ प्रेम योग्य 
माधव के व्यक्तित्व में
वृहत गहन कृतृत्व में,
कर सकता है साधु भी प्रेम उससे 
असाधु भी 
संसार से भागा विरागी भी 
महारास नृत्य का रसिक अनुरागी भी
अपना कर निस्पृहता स्व अंतर में,
वाद्यवृंद है कृष्ण मुरलीधर
बज रही है जहाँ 
प्रत्येक वाद्य से धुनें अपनी अपनी
जो जिसको भाये वही वाद्य हो जाये
प्रेमपात्र उस विशेष प्रेमी का,
होता है एकांगी 
गुण विशेष को चुन कर 
किया गया प्रेम,
प्रेमेगा समग्र संपूर्ण कृष्ण को 
कोई बहुआयामी मानव या मानवी ही 
जो हो वैसा ही 
जैसा अच्युत छलिया मधुसूदन !

वद्यवृंद =ओरकेस्ट्रा

Thursday, 22 August 2019

ना जीना हो सहम कर,,,,


ना जीना हो सहम कर,,,,
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पंछी यह अब थक गया
फलक में उड़ उड़ कर
मिल जाए शजर कोई
जो बैठे वहाँ ठहर कर,,,

तपन नहीं हो सूरज की
ना अंधड़ के हो थपेड़े
उलझे से ना हो बादल
हो छांव शीतल सुख कर ,,,

पाया था बहुत उस ने
दुई हाथ से लुटाया
बेमानी सा लगे सब
टुक दूर से निरख कर,,,

ख़ुद के लिए नज़र हो
हो ख़ुद के ही नज़ारे
बस डूबना हो ख़ुद में
जीना ना हो सहम कर,,,

बहरे-मव्वाज झूठा
सच बूँद एक छोटी
हो जाती जो है मोती
एक सीप में उतर कर,,,

नाकर्दा गुनाही की
सज़ा कर दी जो मुक़र्रर
क्या मिला बता तुझे यूँ
मेरी पाँखों को कतर कर,,,

बागे बिहिश्त से मुझ को
हुक्मे सफ़र दिया क्यों
कारे जहाँ दराज़ है
अब तनहा तू बसर कर,,,

(आख़री शेर इक़बाल के एक शेर का adaption है)

(मायने : शजर=पेड़/tree, टुक=ज़रा, बहरे-मव्वाज=मौजें मारता हुआ समुद्र/stormy sea
शदफ=सीप/shell, नाकर्दा गुनाह=अपराध जो नहीं किए गए, जज़ा=बागे बिहिश्त=स्वर्ग/paradise, कारे जहाँ=सांसारिक कार्य/day to day work
दराज़=लम्बे/long)

Tuesday, 20 August 2019

दास्ताँ बंद लिफ़ाफ़ों के : विजया


दास्ताँ बंद लिफ़ाफ़ों की...
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याद है
उस दिन चाय पर चर्चा में
एक नया ही विषय आन खड़ा हुआ था
पूछा था मैंने :
"तुम्हारे मन में अपने स्त्री संगिनी  की
क्या छवि है ?"

उत्तर देने के बजाय
दाग़ दिया था तुम ने भी सवाल:
"क्या तस्वीर है तुम्हारे दिलो दीमाग में
अपने मर्द पार्ट्नर की ?"

तय हुआ था
भूलकर यह कि
हम 'Childhood Friends' हैं
अब मियाँ बीवी भी हो गए है,
इन सवालों को डील करेंगे दोनों
पूरी पूरी ईमानदारी से...

लिखा था तुम ने :

"मेरी स्त्री तिलोत्तमा सी सुंदरी हो"
नयन नक़्श, शारीरिक सौष्ठव का
रोचक श्रिंगारिक वर्णन कर गए थे तुम
और यह भी
बुद्धिमति हो, ज्ञानवती हो, विनयशील, विचारवान
व्यवहारकुशल हो,मृदुभाषिणी हो,
कल्पनाशील हो, चंचल रोमांटिक कामिनी हो
घर ओफिस दोनो को देख सके, सोचों की गम्भीर हो
जो समझे मुझ को,मंज़ूर हो जिसे मेरी
परम्पराओं को समझे और आधुनिक भी हो
हर हाल में साथ दे मेरा....
और बंद हो गया था मज़मून लिफ़ाफ़े में...

मैंने लिखा था :

यूनानी देवों सा शारीरिक सौष्ठव हो
तीखे नयन नक़्श, रण बाँकुरा हो
शक्तिशाली हो, मेधावी हो, धनी हो
रोमांटिक हो, घूमने फिरने का शौक़ीन हो
दिलदार हो, उदार हो, वक्तृत्व कला में माहिर हो
मेरी वैयक्तिकता को जो स्वीकारे
मेरी स्वतंत्रता में समर्थन दे
मेरे लिए जग से लड़ ले
जो अपना सारा प्यार मुझ पर लुटाए
मेरे सहज नारीत्व को समझे,
अपनाए और संतुष्ट करे
हर हाल में साथ दे मेरा....
और बंद हो गया था मज़मून लिफ़ाफ़े में...

खुले थे लिफ़ाफ़े...
उभर कर आयी थी दो तस्वीरें,
तुम ने मैं ने मिलकर कहा था एक साथ :
अरे ये तो चित्र है किसी चित्रकार की कल्पना से उभरे
ये तो चित्र हैं लाखों स्त्रि-पुरुषों के
मिला जुला कर
किसी एक के नहीं,
सब के सारभूत है ये चित्र तो
आँख किसी की, नाक किसी का, होंठ किसी के
बाल किसी के, रंग किसी का
बल बुद्धि व्यक्तित्व किसी का...

नहीं मिलेंगे ऐसे पात्र
कहीं भी खोजने पर
देख पाते हैं ऐसे किरदार
कवि या चित्रकार
अपने ही बिखरे से ख़यालों में
और डाल देते हैं इन सब को
अपनी अपनी कृतियों में
नहीं करना है हमें भरोसा
इन 'ऑल इन वन' परिकल्पनाओं का
नहीं होना है हमें
कुंठित, लुंठित और असंतुष्ट...

सब से बड़ी ख़ुशी है स्वीकारने में
सब से बड़ी बॉंडिंग है अपनाने में
आओ पी लें चाय
और जी लें उस प्यार को
नहीं करता है जो भेद
पनपता है जो साथ साथ
दर्द और ख़ुशी जीने में...

Thursday, 15 August 2019

ब्रेन वाश आबादी का : विजया


ब्रेन वाश आबादी का ...
++++++
सब ख़ुश हैं
मैं भी ख़ुश हूँ
करके स्वीकार
मना रहीं हूँ जश्न
'आज़ादी'का,
ना होती तुलना
यदि स्थितियों की
कर पाते कैसे हम साबित
नई ग़ुलामी को 'आज़ादी'
करके ब्रेन वाश
आबादी का.....

Monday, 12 August 2019

प्रस्तर प्रवेशनीय : विजया



प्रस्तर प्रवेशनीय...
++++++++++
माना कि तुम हो
एक पाषाण
अचल, दृढ़, निर्लिप्त,
कभी कभी निष्ठुर भी,
किंतु हुआ करता है ना
हर प्रस्तर भी प्रवेशनीय
समा सकता है जल
उसके अंदर भी
किसी न किसी बहाने,
बना देता है
बालुका चट्टान को,
और हो जाता है ना
वही दृढ़ शिला खंड
नरम और लचीला
अविभेध्य कणों वाला...

Wednesday, 7 August 2019

जीने के बहाने खोजता है,,,,



जीने के बहाने खोजता है,,,
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कभी आधे सच, कभी झूठ सोचता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

तारीकी का है आलम, और वो डरा डरा सा
घुटन से परीशां,ग़म से भरा भरा सा
तपिश अगन की में,ख़ुद को ही झोंकता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

पीकर अश्क़ अपने बौझिल हुआ है जीना
शाम या सवेरा बस लहू जिगर का पीना
ख़ुद की ही गाँठों को बाँधता खोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

खोले किवाड़ दिल के ,दुश्मन बसा लिये हैं
हर जुज़्बे ज़िन्दगी पर पहरे बिठा दिए हैं
अमृत भरे जीवन में वो ज़हर घोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

टीसते हैं ज़ख़्म सारे, दिये थे जो अपनों ने
एहसास पिस रहे है, संजोये थे जो सपनों ने
जग से हुआ है गूँगा ख़ुद ही से बोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

भटक रहा सहरा में पानी तलाशता वो
अपने ही पैरहन पर कीचड़ उछालता वो
टूटी तराज़ूओं में जज़्बात तोलता है
एक इँसां आज जीने के बहाने खोजता है,,,

बहती नदिया शुष्क किनारे : विजया

थीम सृजन : बहती नादिया शुष्क किनारे
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बहती नादिया...
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नहीं थोपे हैं किनारे
बाहर से किसी ने
बनाये हैं नदिया ने ही
खुद के लिए
ताकि बिना भटके
चल कर सुचारू रूप से
पहुँच सके अपने प्रवाह से
वह समंदर तक
करने को सम्पूर्ण विलय स्वयं का...

बिना होश,
स्पष्टता और स्वीकार्यता के
खोजने लगती है नदिया
जब भी कोई तीसरा किनारा
होता है जो केवल उसकी ही
कपोल कल्पनाओं में
नितांत परे वास्तविकताओं से
सर्वथा विपरीत अभीष्ट के,
हो जाता है वही
हेतु विभत्स उपद्रवों का...

हो कर उत्तेजित
उबल कर उफन कर
होकर प्रभावित बाहरी ताक़तों से
या अतिवृष्टि जैसी आकस्मिक घटनाओं से
या खोल दिए जाने पर मानव निर्मित बाँधों के
कर देती है अतिक्रमण
अपने द्वारा निर्धारित
अपनी ही सीमाओं का...

वजूद किनारों का
रख रखाव उनका
करता है निर्भर नदिया पर ही,
होकर उद्वेलित ना जाने क्यों
तोड़ डालती है जो
अपने ही तटबन्धों को...

बदल जाए रूख या जगह
नहीं रह सकती
नहीं बह सकती
कोई भी नदिया कभी भी
बिना दो किनारों के...

शुष्क किनारे...
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सूखा देती है
अनावृष्टि नदिया को
कम पिघलना पहाड़ों की बर्फ़ का भी
कर देता है मंद प्रवाह नदी का
सामान्य सा दर्शन है यह
शुष्क किनारों का...

हो जाती है सरिता ऐसे में मौसमी
या खो देती है वेग अपना
या मिट ही जाता है अस्तित्व उसका
लुप्त नदी और शुष्क किनारे
बने रहते हैं कुछ अरसे तक
हो जाते हैं फिर एक मेक
समतल ज़मीन के साथ...

(नदिया याने व्यक्ति.….दो किनारों से आशय है तन और मन या कहें अंतरंग और बहिरंग की संतुलित कोड ऑफ कंडक्ट....तीसरा किनारा है भाव और विवेक दोनों से रहित अराजकता.)

अना,,,,

छोटे छोटे एहसास
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हो जाए ये अना
बग़ीचे के अमरूदों सी,
पक जाए भरपूर
और
गिर जाए
ख़ुद ब ख़ुद !

फ़र्क़ मर्द औरत का - खरी खरी : विजया

स्वांत: सुखाय
========

फ़र्क़ मर्द औरत का : खरी खरी
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(सविता गुप्ताजी की कविता पर चिंतन और विमर्श से उपजी एक सहज रचना...सविताजी की कविता यहीं ग्रुप में  अन्यत्र शेयर की है मैं ने--https://www.facebook.com/groups/1564062830539926/permalink/2478678039078396/)

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सवाल हैं ये
पीछली पीढ़ी की
जीवन शैली के
किंतु सटीक है
कल के लिए भी
ज्वलंत है आज के लिए भी....

बड़ी विचित्र है यात्रा
इन सवालों की
स्वयं से पूछा जाय तो
हो सकती है
अनुभूति इनकी व्यर्थता की,
पूछा जाय अगर औरों से तो
द्योतक है हमारे ही
निर्बल स्वविश्वास के
या है यह कोई दुस्साहस भरा षड्यंत्र
स्वयं की कमज़ोरियों को ढाँपने हेतु
बहाने खोजने का....

सदियों से चली आयी
परिभाषाओं को
आज हम ही करने लगे हैं इस्तेमाल
अपने स्वार्थ पोषण हेतु....

माँग भरने की माँग
उनसे अधिक होती है हमारी
वैसे आजकल ये सब
बन कर रह गए हैं
महज़ फ़ैशन स्टेट्मेंट की महामारी.....

नर नारी मैत्री आज की नहीं
आदि काल ही हक़ीक़त है
द्रौपदी और कृष्ण की मित्रता
प्रतीक है
स्वस्थ संबंधों और परस्परता की,
है यदि कोई रिश्ता
परे वैचारिक संकीर्णता और द्वेष से
स्वीकार्य है अंतर्मन से जो स्वयं को
स्वीकारेंगे उसे कालांतर में
होंगे जो भी हृदयत: अपने,
शेष दुनिया के लिए होगा बस समझना
"क्या कहेंगे लोग
सब से बड़ा यह रोग...."

सौंदर्य है ईश्वर प्रदत्त उपहार
सजना संवरना रख रखाव भी है
ईश स्तुति तुल्य
नर और नारी दोनों के लिए,
होना अन्नपूर्णा मौलिक स्वभाव है स्त्री का
होना चाहिए हमें गर्व उस पर,
साझा शब्द होता है लागू दोनो पर
जो भी साझेदार करता नहीं सहयोग
वज़न उठाने में
कराना होता है हमें ही उसको
एहसास उसका,
नहीं बदल सकता
हमारा प्यार और तकरार यदि
फितरत उसकी
बदल सकते हैं ससम्मान
हम अपनी ही सोचों को
करते हुए पूर्ण सुरक्षा अपने स्वाभिमान की,
नहीं आते हैं यथेष्ट परिणाम तब भी
तो लेने होते हैं उचित कड़े निर्णय
करके सक्षम स्वयं को.....

सदियों का अनूकूलन और कुंठायें
हावी है हम स्त्रियों के दिलों और दीमागों पर
वजह यही तो है स्त्री के स्त्री के प्रति
प्रतिक्रियात्मक दुर्भाव की
जिसे देता रहा है है हवा
पुरुष प्रधान समाज
नाना प्रकार के निर्वचनों और प्रतिपादन से,
होशमंदी स्पष्टता और स्वीकार्यता
दिला सकती है निजात हमें
जलन और एहसासे कमतरी से,
कर सकती है दूर सभी छद्म विकारों को
जो नहीं है 'एकाधिकार' 🤣केवल स्त्रियों का
क्या नहीं पाई जाती ये सारी असंगतियाँ
पुरुष व्यवहार में भी ?

तलाशते हैं अवसर संसर्ग के
पुरुष और स्त्रियाँ दोनो ही,
जैविक सत्य भी जुड़ा है दोनों से एक सा
तोहमत लगा कर केवल मर्दों पर
करना साबित ख़ुद को दूध का धुला
है नितांत निराधार और असंगत...

स्वयं की नकारात्मक सोच
सतही संवेदनाएं
बनती है सबब स्वयं की घुटन का,
पीड़िता और शहीद दिखाने की फ़ितरत
वजह है असमंजस और छटपटाहट की
सम्भव है मुक्ति सर्वथा
स्वयं और पर की क़ैद से
अपनाएँ यदि स्त्री
रीति नीति समग्र सोचों की....

चले जाने की बात करते हो : विजया


चले जाने की बात करते हो...
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राज छुपाने की बात करते हो
किस बहाने की बात करते हो...

ज़िंदगी हो चली एक हक़ीक़त
क्यों फ़साने की बात करते हो...

ठहरे हो कब हर लम्हा मौ संग
यूं चले जाने की बात करते हो...

जीने लगे है खुद की तरह हम
फिर जमाने की बात करते हो...

लील लिया सब कुछ जिसने
उसे भूल जाने की बात करते हो...

ना वो शम्मा, ना तुम परवाना
जलने जलाने की बात करते हो...

नाकाफी क्या धड़कन दिल की
प्यार जताने की बात करते हो...