प्रश्न रुक्मिणी के ऋषि दुर्वासा से....
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ऋषि थे आप तो
ज्ञाता शास्त्रों और धर्माचार के
मार्गदर्शक समाज के
विद्वान ब्राहमण त्राता सर्व पाप के
फिर भी ऋषिवर !
क्रोध इतना ?
आये थे विवाहोपरांत
हम नवदम्पति
करने निमंत्रित स्वगृह आपको
देने को आदर हृदयत:
पाने को आशीर्वाद,
किंतु सहमति भी आपकी
ऋषिवर !
थी सशर्त क्यों ?
देने को मान
आपकी मनसा को
सम्मान स्वप्रेमी के वचनों को
निबाहने को सम्बंध जीवन साथी संग
जुत गयी थी मैं कोमलाँगी
अश्व का स्थानापन्न बन रथ में
हुए थे आरूढ़ सदम्भ आप
किंतु नहीं कचौटा था क्या
ऋषिवर !
पवित्र मन आपका ?
खींचे जा रहे थे रथ हम युगल
लथपथ स्वेद में
सहते हुए वेदना निरर्थक श्रम की,
लगी थी तीव्र प्यास मुझ को
देखा ना गया था दर्द मेरा प्रियतम से...
बहा दी थी कुरेद कर धरा को
अपने बलिष्ठ अंगुष्ट से
शीतल गंगधार श्रीकृष्ण ने
पहुँची थी अनायास जो
मेरे मुख और कंठो तक,
ऐसे में कैसे पूछ पाती
ऋषिवर !
आपको मैं जल हेतु ?
असीम अहंकार
दमन से उपजी कुंठाएँ
परिलक्षित थी आपके व्यवहार में
नहीं सोचा था तनिक भी आपने
देने में अतिभार रथ चालन का
हम निरीह युगल पर,
शाप हमें दीर्घ वियोग का
भूमि को भी बंजर योग का
कैसे दे पाए होंगे आप
ऋषिवर !
होकर नितांत संवेदन शून्य ?
मुझ स्त्री ने ही की थी घोर तपस्या
पाने को मुक्ति वियोग श्राप से
किंतु फिर भी
भुगत रही है दंड आज भी
प्रस्तर आकृति मेरी
प्रिय मंदिर से दूर रह कर,
कैसा है यह न्याय
ऋषिवर !
आपका और आपकी
इस छद्म उदारमना संस्कृति का ?