Wednesday, 24 August 2022

सूर्यास्त के उस पार...

 


सूर्यास्त के उस पार....

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करता है कोई प्रतीक्षा मेरी 

सूर्यास्त से ठीक बाद 

विद्यमान है नियति मेरी 

सूर्यास्त के ठीक बाद,

जहां जामुनी रंग के पर्वत 

डटे हुए है शांति से 

वहीं तो मिलना है मुझे 

ख़ज़ाना शाश्वत प्रेम का...


सूर्यास्त के उस पार 

कोई बहुत सुंदर और आतुर 

मेरी प्रतीक्षा में है 

नितांत अकेला कोई,

केश उसके सुनहरे है 

मरुभूमि की उजली बालू के रंग के 

आँखे उसकी चमकती है 

जैसे हथेली में हो हीरे...


सूर्यास्त के बिलकुल निकट 

अवस्थित है एक घर मेरे लिए 

जहां का संसार है सुकून भरा

बिलकुल स्वर्ग सा?

बता दूँ तुम्हें आज 

इस विदा की घड़ी में 

पाओगे मुझे तुम 

सूर्यास्त के ठीक बाद...

तजुर्बे...

तजुर्बे...

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अस्सी के दशक में जब इंटर्नेट और सोसल मीडिया का चलन नहीं  था, मैं एक पोस्टर अपनी Management Classes और Work Shops में अक्सर टंगाया करता था (तस्वीर दे रहा हूँ) और यह जुमला, जिसे Physicist Emil Lenz के Lenz's Law से जोड़ कर कहते थे,  मेरे लेक्चर्ज़ में किसी ना किसी हवाले से  इस्तेमाल हो ही जाता था :


"Experience is what you get when you don't get what you wanted." 

(तजुर्बा/अनुभव वह शै है जो तब हासिल होता है जब वो नहीं मिलता जिसकी ख्वाहिश रही होती है 😊). 


वाक़ई यह तजुर्बे का सच है. सब कुछ लुटा के कुछ लोग होश में आ जाते हैं और चीजों को सही कर लेते हैं...और कुछ repeat performance देते हुए खुद को साबित करने की नाकाम कोशिशें करते रहते हैं.


कुछ तजुर्बे illusions याने इख़्तिलाले हवास याने मतिभ्रम की मानिंद होते हैं. हम सोचते जाते हैं और महसूस भी करते हैं सब सही हो रहा है और उसके लुत्फ़ में दीवाने हुए जाते हैं जब कि हम खुद ही अपना नुक़सान किए चले जाते हैं. एक कुत्ता जैसे सूखी हड्डियों को मुँह में भर लेता है....चबाने के दौरान उसके तालु और मसूढ़ों से खून का रिसाव होता है..वह अपने ही खून का ज़ायक़ा लिए जाता है, बड़ा खुश होता है और लगातार ज़ख़्मी होता जाता है...कभी कभी तो ऐसा ज़ख़्म जानलेवा भी हो जाता है.


जैसा कि मैने एक जगह कहा है, हम तजुर्बों से सीख लेकर आगे के लिए सही कर सकते हैं मगर उसके लिए होशमंदी का होना ज़रूरी है. हमारी नाकामियाँ हमारी कामयाबी के महल के लिए 

खम्भों (posts and pillars) का काम कर सकती हैं. failures can be great feedbacks for designing future course of action. नाकामियाँ कामयाबी की जानिब पहुँचने के लिए सीढ़ी का काम कर सकती है, बस हमारा नज़रिया कुछ ऐसा ही हो.


अच्छे तजुर्बे ताज़गी और ताक़त देते हैं. भरपूर जीने का हौसला देते हैं. हम अपने इर्दगिर्द ख़ुशियाँ बिखेर सकते हैं. ज़रूरतमंदों से अपने इल्म को बाँट सकते हैं और उन्हें भी कामयाबी की तरफ़ आगे बढ़ने में मदद कर सकते हैं.


कुछ रूहानी तजुर्बे भी होते हैं जो गूँगे के गुड़ जैसे होते हैं. उनका बस एहसास होता है, उनका इजहार अल्फ़ाज़ में नहीं किया जा सकता...बस वाइब्ज़ में ही मुमकिन होता है. उनके पहुँचने के लिए माहौल और मौजूदगी के इलावा लेने वाले के नुक़्ता ए नज़र की भी बात भी अहम होती है.


कुछ तजुर्बे फ़क़त ख़याली पुलाव होते हैं जो दीमाग की हांडी में मुसल्सल पकते रहते हैं और चालाक लोग अपने जैसों को ही परोसते रहते हैं (यह chain बदस्तूर जारी रहती है) या मासूमों/बेवक़ूफ़ों को शिकार बनाते रहते हैं. आजकल इसे Marketing में शुमार करते हैं....इस तकनीक का इस्तेमाल आपको इन दिनों ज़िंदगी के हर मैदान में दिखायी देगा.


दिल तो करता है कि अपने सारे तजुर्बों को सिलसिलेवार या रैंडम यहाँ शेयर करूँ मगर रुक जाता हूँ क्योंकि अभी जाँ बाक़ी है.😊







सुकून : विजया


सुकून

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खोजती रही थी

बाहर जब तक

उधार में मिलता था

सुकून मुझ को,

माँग लेता था वापस

अचानक कोई

या लौटा देना होता था

मुझ को ही उस क़र्ज़ को

एक मुश्त या किश्तों में....


.....और एक दिन

खोलकर रख दिया था

मैंने दिल को उसके सामने,

सिखा दिया था उसने

होशमंदी के साथ 

बो देना सुकून

मेरे अपने ही वजूद के खेत में

देखते समझते 

सराहत के संग

करते हुए तस्लीम 

हक़ीक़तों को...


सींचा किया था मैंने

इस नायाब खेती को

मुस्बत नज़रिए के पानी से,

लहलहा रही है अब

हरी भरी फ़सल

और

जी रही हूँ मैं

एक पुरसुकूँ ज़िंदगी

उसके साथ...


(सराहत=स्पष्टता, तस्लीम=स्वीकार, मुस्बत=प्रमाणित)

मैं और तुम, तुम और मैं...: विजया

 मैं और तुम, तुम और मैं...

++++++++++++++

जैसे जुदा नभ से है धरा 

रुष्ट है अगन से वारि प्रवाह 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम 

तुम और मैं...


जैसे अश्रु हैं नयन से अलग 

जैसे वृष्टि मरुथल से रुष्ट 

वैसे ही तुम और मैं विलग 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम

तुम और मैं...


कभी दिवस का अवसान देख 

निशा के प्राकट्य को देख 

पुष्प की मृत्यु को देख 

होता सब का ही अवसान तू देख...


शशि का अवरोह देख 

रात्रि का आरोह देख 

पत्तों की झरन को देख 

रूप के क्षरण को देख 

होता सब का ही अवसान तू देख...


दो तट है मैं और तुम 

मिल सकेंगे कैसे 

मैं और तुम 

राहें हैं अपनी है अलग अलग

कैसे जुड़ सकेंगे 

मैं और तुम 

दीठ एकांगी मेरी तेरी

मुड़ सकेंगे कैसे 

मैं और तुम...


जैसे पृथक है रजनी प्रकाश 

जैसे पुष्प आँधियों से रुष्ट 

टूटा टूटा है अपना सम्बंध

मिलन पर भी है प्रतिबंध 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम...


मेरा हृदय कोमल पंख सा 

मेरा सोच है क्यूँ पंक सा 

कैसा मेरा निर्बल संवेदन

असह पीड़ा और  वेदन 

उबरूँ मैं कैसे..उभरूँ मैं कैसे..मेरे पिय !

आए चैन कैसे मेरे हिय...


जैसे जुदा नभ से है धरा 

रुष्ट है अगन से वारि प्रवाह 

वैसे ही तो हैं 

मैं और तुम 

तुम और मैं...


कभी दिवस का अवसान देख 

निशा के प्राकट्य को देख 

पुष्प की मृत्यु को देख 

होता सब का ही अवसान तू देख...

तुम्हारे लिए....


तुम्हारे लिए...

#######

गाऊँगी मैं तुम्हारे लिए 

बस तुम्हारे लिए 

खोज लूँगी तुम्हें 

जाओगे तुम जहां 

जहां हो नज़र 

मुझको पाओगे वहाँ 

तुम ना हो तो 

सूना है सब कुछ यहाँ 

जिऊंगी मैं बस तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


हर पुकार की 

तुम आवाज़ हो 

मेरी हर धुन के 

तुम्हीं साज हो 

राज की तरह 

तुमको छुपाऊँगी मैं 

हो तुम्हीं मेरे गीत 

गुनगुनाऊँगी मैं 

सजाऊँगी महफ़िल तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


ख़्वाब मेरे ख़ातिर 

छोड़ तुम चल दिए 

अकेली मैं कैसे 

रह पाऊँ तुम बिन 

क्या है तेरा पता 

सोचती मैं पल छिन 

मेरे दिल का भी है 

अपना ही जेहन 

झुक जाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


दीवानी ये क्या 

वजह हो गई 

तुम को ना जाने कैसे 

कहाँ ले गयी 

बारिशी घुँघरुओं की 

रुनझुन हो तुम

अनलिखे अनकहे 

अल्फ़ाज़ों में  तुम

कहूँगी ग़ज़ल बस तुम्हारे लिए 

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...


दिल तुम्हारा 

तुम्हें याद दिलाता रहे 

सिवा प्यार के 

कुछ ना हो राह में 

प्यार ही प्यार हो 

दोनों की चाह में 

मेरी अनछुई धड़कनों

मैं है तू ही तू 

धड़कूँगी मैं बस तुम्हारे लिए  

गाऊँगी मैं बस तुम्हारे लिए...

जश्ने मोहब्बत : विजया



जश्ने मोहब्बत...

++++++++

बंद कर के दरवाज़ा 

मुँह फेर लिया था तू ने 

बेपरवाह हो कर 

करते हुए बेक़दरी 

मेरे बहते हुए आंसुओं की..


यही मकाँ था 

जिसे लाख कोशिशों के बाद भी 

ना बना पाई थी मैं 

घर अपना..

तुम्हारा भी, मेरा भी...

काश तुमने मुझे सुना होता...


आज हाज़िर हूँ मैं 

उसी दहलीज़ पर 

अपने वजूद का जश्न मनाने 

जो पा सकी थी फिर से मैं 

हुई थी मैं जब मुख़ातिब

इस दर-ओ-दीवार से 

बाहिर की दुनिया से...


टूटा हुआ पलस्तर-खिले खिले रंगीन फूल 

बंद दरवाज़ा-मेरा आज़ाद रौं रौं 

हँसती खिलती गा रही मैं 

सब मिलकर 

सुना रहे हैं दास्तान 

मेरे खोने और पाने की...


सुनकर गीत मेरे 

चला आए शायद तू भी  

होने को शरीक 

दिल ओ जान से 

इस जश्ने मोहब्बत में 

जहां नहीं है ज़रूरत 

किसी अनमने 'और' की...