सुकून
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खोजती रही थी
बाहर जब तक
उधार में मिलता था
सुकून मुझ को,
माँग लेता था वापस
अचानक कोई
या लौटा देना होता था
मुझ को ही उस क़र्ज़ को
एक मुश्त या किश्तों में....
.....और एक दिन
खोलकर रख दिया था
मैंने दिल को उसके सामने,
सिखा दिया था उसने
होशमंदी के साथ
बो देना सुकून
मेरे अपने ही वजूद के खेत में
देखते समझते
सराहत के संग
करते हुए तस्लीम
हक़ीक़तों को...
सींचा किया था मैंने
इस नायाब खेती को
मुस्बत नज़रिए के पानी से,
लहलहा रही है अब
हरी भरी फ़सल
और
जी रही हूँ मैं
एक पुरसुकूँ ज़िंदगी
उसके साथ...
(सराहत=स्पष्टता, तस्लीम=स्वीकार, मुस्बत=प्रमाणित)
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