Monday, 31 May 2021

प्यार भी है मौसम सा : विजया


प्यार भी है मौसम सा...

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(1)

तुमने कह दिया था ना 

नहीं जानते अब तुम मुझ को 

मेरे मिज़ाज, मेरी शख़्सियत, 

मेरे किरदार 

बदलते रहते हैं सारे..

सुबह जब होती है 

हुआ करती हूँ मैं 

मीठी मीठी ख़लीक़ ओ रूमानी 

दोपहर जब गर्म ओ मर्तूब हो जाती है 

मैं हो जाती हूँ

हक़ीर ओ सख़्त जुबान 

और 

फेंक देती हूँ तुम पर 

अपनी बदमिज़ाजी ओ चिड़चिड़ापन....


(2)

मैं नहीं जानती 

क्या है सच 

क्या है झूठ 

मगर कहानी है कुछ ऐसी सी....


एक सुनहली धूप भरे आकाश वाले दिन 

परवान चढ़ा था 

हमारी मोहब्बत का अफ़साना 

बजाई  थी तालियाँ सारी कायनात ने 

मनाने को इस अज़ीम दास्ताने इश्क़ का जश्न,

उफ़्फ़ ! अचानक एक दिन 

घिर आए थे काले बादल 

चुरा ले गए थे वे

सूरज सी मुस्कान को 

चला गया था इश्क़ बेहोशी की नींद में 

शायद दो एक साल के लिए....


और एक दिन रिमझिम बारिश वाले दिन 

हमें सतायी थी याद 

उन कोमल कोमल प्यार भरी 

भीगी भीगी ठंडी रातों की 

हो गए थे तब एकमेक हम 

अपने ही बनाए 

प्यार के घरौंदे में

समा कर एक दूजे में 

उस बरसते हुए 

सारे के सारे दिन में...


वह आधी रात थी 

जब तेज तूफ़ान आया था 

बहुत गंदा सा था ना वह मौसम 

ना जाने क्यों मजबूर हो गए थे 

इस दीवार को बनाने को 

और क़ायम कर ली थी दूरी अपनी फिर से, 

एक खोखला सा ख़ालीपन बरपा था 

अपने दरमियान पूरे साल 

कितने तड़फते रहे थे 

अपने आशियाने मोहब्बत के एहसासों के लिए 

मगर फिर भी दोनों की अना ने 

पसंद किया था 

रेशम के कीड़े के खोल में पड़े रहना...


(3)

आज कुछ गर्म सा दिन है 

सूरज भी अलसाया सा बाहर आ रहा है 

फ़िज़ा मे गरमी है ज़रा सी 

कोशिश की है मैं ने मुस्कुराने की 

कहा भी है तुम्हें, "हेल्लो",

जकड़ लिया है तुमने हाथ मेरा 

और कहा है : कभी ना बदलना 

मुस्कुरा रही हूँ मैं 

अपनी अश्क़बार आँखों में 

याद करते हुए 

उन सभी मौसमों को 

जब जब हमने प्यार किया था 

जब जब हमने नफ़रत की थी 

उफ़्फ़ ! कितना जाया कर डाला है 

वक़्त हमने ?


यह तुम हो 

यह मैं हूँ 

कितना प्यार करते हैं हम एक दूजे से 

क्यों बदलें हम मौसम के साथ ?

हो सकती हूँ मैं अंधड़ कभी 

तो कभी बवंडर भी 

मेरा दिल मगर धड़कता है वैसे ही 

बबजूद मौसमों के बदलने के, 

यक़ीन करो, मेरे प्यार !

मैं कभी नहीं बदली...

कभी भी नहीं....

Sunday, 30 May 2021

मौसम...

 


मौसम...

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वुज़ुद है मेरा

मौसमों से ,

कभी भी 

ख़त्म ना होने वाले मौसम,

ख़ुद को दोहराते हुए

यादों को दोहराने वाले 

मौसम,,,


बेजान डालियाँ

सफ़ेद बर्फ़ 

नीला आसमा

सूरज की चमक 

लाल पत्ते

हवाओं का चलना

हरी घास 

और दरिया का बहना 

ये सेहर कर देने वाले मौसम 

हो जाते हैं सबब 

लुत्फ़ ओ मसर्रत के मुझ को 

यादें खिंची चली आती है 

मेरी रूह पर 

उनकी गहराइयों में  

घोलता हूँ ख़ुद को मैं,,,


मेरे ही मौसम 

बना डालते हैं मुझे 

कभी बदमस्त 

कभी दीवाना 

कभी खब्ती..

छोड़ देते हैं लाकर 

मुझे एक फाँस में...

उल्टा चलने लगती है घड़ियाँ 

फिर से बदल जाते हैं मौसम,

कैसे  अदल बदल कर पाए कोई 

यादों और लम्हों को,,,


करके तस्लीम 

हर मौसम को 

करते हुए दुआ सलाम 

गुज़रते लम्हों से 

लेता हूँ मैं साँस 

अफ़्सुर्दा बेदिल सर्द हवा में 

और छोड़ता हूँ 

साँसों से गर्म बादलों को,,,


ख़ुशगवार होते हैं मौसम 

ग़मज़दा होते है मौसम 

निहायत ख़ूबसूरत होते हैं मौसम 

पागल दीवाने होते हैं मौसम,

वुज़ुद है मेरा

मौसमों से ,

कभी भी ख़त्म ना होने वाले मौसम,

ख़ुद को दोहराते हुए

यादों को दोहराने वाले मौसम,,,


मसर्रत=आनंद, अफ़्सुर्दा=उदास, सेहर=वशीकरण/मोहित

Thursday, 27 May 2021

महामारी स्वच्छता दिवस पर....: विजया



माहवारी स्वच्छता दिवस पर...

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शर्म और चुप्पी का विषय है 

आज भी 

आधी आबादी को कभी भी 

नहीं माना था ना 

एक अहम हिस्सा इंसानियत का....


सिर उठा कर आज 

होने लगी है बात जब 

Wa S H की 

जल (water)

स्वच्छता (sanitation)

आरोग्यता (hygine) या 

हाथ धोने (Hand Wash) की,

तो आई है चेतना कुछ हद तक....


महामारी के शोर बाजों को 

क्या आई थी याद कभी 

स्त्री पर समाज के थोपे कलंक 

जो है निहायत प्राकृतिक 

समय चक्र माहवारी की

जिसके चलते है प्रजनन 

संसार का जीवन 

उस सार्वभौमिक सत्य की पारी की...


भूल गए हैं सब पल में 

Toilet क्रांति को 

भूल गए हैं क्षण में सारे 

Kitchen क्रांति को 

भूल गए हैं पलक झपकते ही 

'छत' (पक्के घर) की क्रांति को...


चलना आरम्भ हुआ 

और भी गति पानी है,

किंतु राजनीति के गिद्धों के लिए 

सब कुछ तो अनजानी है 

विरोध के एक सूत्री कार्यक्रम को  छोड़ 

साथ दो उस नेतृत्व का 

जिसने पहली दफ़ा 

सुध ली है आधी आबादी की

और आज महमारी से लड़ने की ठानी है...