Sunday, 3 April 2022

अपेक्षा के दर्शन की खींच तान : विजया

 


अपेक्षा के दर्शन की खींच तान 

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अपेक्षा पूरी ना हो तो दुःख होता है, यह कोई बहुत बड़ी शास्त्रीय बात नहीं. हम में से हर कोई किसी ना किसी तरह इस तथ्य का अनुभव जीवन में बार बार करता है. 


आपसी अपेक्षाएँ सम्बन्धों का आधार बनती है, एक दूजे से share करने और एक दूसरे का care करने की सबब बनती है.


अपेक्षा को नकारना मानवीय नहीं है. हाँ उसकी वजह से हमें दुःख न पहुँचे या कम से कम हो या हो भी जाए तो हम कैसे उस से बाहर आएँ यह देखने की बात है. संतुलन सम्भव है यदि हमारा जज़्बा देने का रहे, उदारता और क्षमाशीलता हमारे स्वभाव में शुमार हो, हम होशमंद हों और जिस भाव से देने वाले ने दिया उसके लिए अहोभाव और कृतज्ञता दिल में हो.


जिन्होंने स्वयं अपेक्षाओं पर क़ाबू पा लिया हो या जिनकी दृष्टि संतुलन की हो वे सामान्य व्यवहार और आपसी सौहार्द को 'अपेक्षा दुखकारी" "अपेक्षा रखने वाला हेय" आदि दृष्टियों से नहीं देखते. जिन्होंने इस सिद्धांत की  व्यापकता को आत्मसात् किया हुआ होता है उन्हें बिलकुल ज्ञात होता है कि कैसे कहाँ रेसिपरोकेट किया जाना चाहिए. 


हाँ इस नटखट जुमले : "खुद करे तो रास लीला, कोई और करे तो करेक्टर ढीला" वाली जनता का intellectual cover up मात्र होता है या आध्यात्मिक होने का ढोंग.


जीवन की अपेक्षाजनित विसंगतियों का तौड़ स्वविवेक और स्वयं का ही जागरूक साक्षी भाव है, जिसमें इसका संतुलन निहित है. उदाहरण के लिए कृष्ण के जीवन की समग्रता इस संतुलन की एक प्रतीक है.


हमारे दादीसा जिनका पूरा जीवन ही निस्वार्थ निश्चल प्रेम और तदनुरूप अपेक्षा के संतुलन का जीता जगता उदाहरण था, उनसे सुनी कहानियों में मेरी पसंदीदा एक जो विषय के लिए प्रासंगिक है, प्रस्तुत कर रही हूँ.


एक बेटा पढ़ लिख कर बहुत बड़ा ज्ञानी हो गया. गुरुकुल में किसी पोंगे पंडित ने किताबों से पढ़ा दिया कि सब रिश्ते बेकार...मोह दुखों का मूल...किसी ने तुम्हारा कुछ उपकार किया उसको उसे भूल जाना चाहिए, अपेक्षा रखना अच्छी बात नहीं. उसकी माँ बेचारी को वात्सल्य की अनुभूति थी और उसका विद्या ददाती विनयम का पाठ भी सुना हुआ था लेकिन बेटे ने शायद भृथहरी का वैराग्य शतक पढ़ लिया था...भोजन, आवास, सेवा टहल सब कुछ ग्रहण करता किंतु फिर भी माँ के साथ दम्भ से निरादर करता रहता.  देखभाल करना तो दूर  ठीक से प्रणाम पाती तक भी न करना पंडित जी के ज्ञान का बिम्ब हो गया था. पिता असमय संसार छौड़ चुके थे, निरीह माँ....🥲


माँ ने राज दरबार में गुहार लगायी. बेटे को तलब किया गया. बेटे का बयान कि मेरी उत्पति एक जैविक कार्य था, पालन पोषण माँ का एक कृतव्य...माँ की महानता इसी में है कि मुझ से कोई अपेक्षा न रखे...अपने तर्कों के पक्ष में शास्त्रों के कई उद्धरण भी उसने दिए, साक्षर जो ठहरा ऊपर से बुद्धि जीवी.


राजा ने कहा : अरे ख़याल कर यह माँ तुम्हें नौ महीने पेट  में समाए रही, कितना कष्ट हुआ था उसे तुम्हें  जनने और पालने में. पंडित बेटा बोला यह कौन बड़ी बात, हमेशा ऐसा होता आया है, युग युगांतर से. मेरी भावनाएँ और व्यवहार मेरी मर्ज़ी.


भूल गया था अपने तथाकथित ज्ञान के घमंड में माँ का किया सब कुछ.


राजा को लगा पंडित को सबक़ सीखाना  चाहिए. आदेश हुआ पंडित जी एक शिशु के वजन का पत्थर अपने पेट पर बांध कर नौ महीने बिना किसी हिलो हुज्जत के चले फिरे, सोए उठे, दैनिक कार्य करे.

कहना नहीं होगा चंद दिनों में ही पंडित की टाँय टाँय फिस्स. उसे एहसास हुआ अपनी गलती का...और माँ के चरणों में गिर गया.


मानवीय सम्बन्धों के खेल के कुछ अलिखित नियम होते हैं जिसे हम व्यवहार संवेदन कह सकते हैं. किसी अपने की अपेक्षा हो या नहीं हो हमें जो करना वांछित है वह करना ही चाहिए ना कि पंडित बेटे की तरह अपने ज्ञान की वमन करनी चाहिए.


जहां समझ और संवेदनशीलता होती है वहाँ  अपेक्षा और उसके असंतुलन से हुई पीड़ा के अवसर न्यूनतम हो जाते हैं. कहाँ कुछ होता है सौ फ़ीसदी पर्फ़ेक्ट, फिर यह अपेक्षा के दर्शन की खींच तान क्यों ?


मैं एक ज़मीन से जुड़ी होम मेकर महिला हूँ, जिसने व्यक्ति और समूह के जीवन को क़रीब से देखा है. ऐसे वातावरण में स्वयं का विकास किया है जहां प्रेम,करुणा, सनिग्धता, उदारता और शालीनता का मूर्त रूप देखा और खुद भी जीया है. मुझे इसे स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि मुझे देने और पाने दोनों में ही प्रसन्नता की अनुभूति होती है. अपने और अपनों से अपेक्षा रखते हुए भी मैं अपने आंतरिक और बाह्य प्रगति पर निरंतर अग्रसर हूँ क्योंकि मैने अपेक्षा भाव को समझा है उससे उत्पन्न पीड़ाओं को संयत होते भी देखा है. हाँ मैने  अतियों से खुद को बचाते हुए अपने हर भाव और जीवन व्यवहार में अनवरत शोधन संशोधन और संतुलन को अपनाया है, और उसके परिणाम सुखखारी ही पाए हैं. अपेक्षा होना स्वाभाविक है, अपेक्षा से गुजरना ग़लत नहीं उसे लेकर बैठ जाना वांछित नहीं.


एक शांत चित्त की दृष्टि और सृष्टि बिना विचलित हुए जीवन के प्रत्येक आयाम को उसके सम्यक् रूप में देख सकती है.

अत्तर रूहानियत का : विजया

 

अत्तर रूहानियत का..

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नहीं लिख पाता प्रेम कोई

कोरे काग़ज़ पर कलम से 

हो गया है निशब्द 

जिसे भी हुआ हो अनुभूत प्रेम...


इंद्रियाँ भी है 

वरदान अस्तित्व का 

किंतु मिलन का मतलब 

महज़ उस से  ही लागाए कोई तो 

मुहब्बत का स्वाँग भर है वह 

अल्फ़ाज़ के लबादे में...


प्रेम की ख़मखयालियों  में  

फिसलकर कोई 

अनुकूल प्यार ढूँढने का यात्री हो जाए,  

तो हक़ीक़त में  रखता है उम्मीद 

वासनाओं को पूरा करने की 

सुविधाभोगी प्रेम के आवरण में...


होता है अवमूल्यन 

प्रेम की शुचिता आत्मिकता का 

जहां हो सम्बन्धों का उदेश्य बस  

लक्ष्यपूर्ति, महत्वाकांक्षा, 

अपेक्षा, सुविधा, 

देह और भौतिकता का आकर्षण...


देह स्पर्श की तरंगों का 

उत्तेजन और उत्साह 

एक निवारण है दैहिक भूख का  

किंतु इसमें प्रेम कहाँ ?


छू जाए आत्मा के तेज को 

तो कर सकते हैं सम्बोधित 

उस छुअन को 

प्रेम कह कर

देहमय भी देहतर भी...


मोहताज नहीं होता है प्रेम 

दुनियावी रस्मों का 

पंडित और पुरोहित की दिलायी 

अर्थ खोये रिश्तों की क़समों का...


प्रेम तो है अत्तर रूहानियत का,

ख़ुशी और ग़म

पीड़ा और संवेदना 

तन और मन को साथ लिए 

एक नूर शख़्सियत का...

मूक साक्ष्य : विजया

 शब्द सृजन : प्रेम

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मूक साक्ष्य...

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मूक साक्षी मात्र ही तो होती है 

मंदिर-प्रांगण के वटवृक्ष पर बंधी 

मौलि की अनेकों फेरियाँ, 

दर्शक होती है जो

हर कदम की 

गमना गमन 

शब्द और मौन 

स्थिरता और कम्पन की,

दे पाता है प्रमाण कौन 

अस्तित्व के मूक साक्ष्य के अलावा 

एकांतिक प्रेम 

अथवा 

अदैहिक आत्मीय दाम्पत्य का....


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दाम्पत्य=स्त्री और पुरुष का निकटतम सम्बंध/male female intimacy.

खेल गुणन भाग के : विजया

 खेल गुणन भाग के...

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माना कि आवश्यक है 

कौशल, चातुर्य, वाक् पटुता

संसार में उत्तरजीवन हेतु 

नहीं समझ पाते 

प्रेमिल हृदय किंतु 

खेल गुणन भाग के,

बहुत सी निश्छल सहज स्त्रियां 

जो नहीं चाहती लांघना 

अपनी निष्ठा की रेखा को

छली जाती है इसीलिए ही 

पुरुषों द्वारा कभी कभी 

उन त्रियाओं लिए 

जो हुआ करती है निष्णात 

केवल पटुता,कपट और भेद में...

रिश्तानामा : विजया

 

रिश्तानामा...

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देखा है रिश्तों को 

फूलों की तरह खिलते 

बारिश की तरह बरसते 

चाँद की तरह शीतल 

सूरज की तरह गर्म

कपास की तरह  नर्म...


देखा है रिश्तों को 

बनते बिगड़ते

एक तरफ़ा निभते

घुट घुट के जीते 

अंधेरे कोनों में रोते 

नक़ली मुस्कान लिये 

होठों को सिये

सूखी लकड़ी की तरह धू धू धधकते 

गीली लकड़ी की तरह सुल सुल सुलगते...


देखे हैं मै ने 

दिल से जुड़े रिश्ते 

दीमाग से बने रिश्ते 

इज़हार वाले रिश्ते 

ख़ामुशी के रिश्ते 

रूहानी रिश्ते 

जिस्मानी रिश्ते....


समझा है मैने 

केंद्र और परिधि के प्रेम का अंतर 

परिचय और अंतरंगता का अंतर 

खून के और बनाए हुए रिश्तों का अंतर 

आंतरिक और बाह्य का अंतर 

पसंदगी और प्यार का अंतर

मैत्री और लोकव्यवहार का अंतर....


सभी में जो जो पाया कोमन, वह है :

रिश्तों में महज़ लेने की फ़ितरत से बचना होता है 

रिश्तों में देने का जज़्बा रखना होता है 

रिश्तों को सहेजना और सम्भालना होता है 

रिश्तों के एहसास को महसूसना होता है,

बदलती है हर शै इस आलम में 

रिश्तों की बुनियाद को मगर 

टूटने और बदलने नहीं देना होता है,

लाख कहे कोई 

सहज नैसर्गिक निष्पर्यत्न है सम्बंध हमारे 

जी कर देखा है शिद्दत से सम्बन्धों को 

इन्हें तो दिलोदीमाग से निभाना ही होता है...

चाय पर चर्चा : विजया

 थीम : रिश्ते-बदलाव-फ़ित्रत

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चाय पर चर्चा...

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हम दोनों के चाय के सेसन सहज और बहुरंगी होते हैं और कई दफ़ा होते हैं घर में भी और बाहिर भी. रोज़मर्रा के घर के मसलों से लेकर प्यार मोहब्बत, म्यूज़िक, फ़लसफ़ा, लोग, घटनाएँ और ना जाने क्या क्या फ़िगर होते रहते हैं. तरह तरह की चायें, कप, ट्रेज और दूसरी चीजें...और तरह तरह की बैठने की जगहें भी मस्त माहौल बना देती है, हमारे सर्कल में हम दोनों के ये टी सेसन कई भावों और नज़रिए से देखे जाते हैं.


हाँ तो आज सुबह जो 'फ़िगर' हुआ वह ग्रुप में चल रही थीम से भी संजोग से मिल रहा है, शेयर किए ले रहे हैं😊


एक Quote जो 2016 में साहेब ने फ़ेस बुक पर share किया था memory में आ गया और उन्होंने आज फिर से share किया. मैने देखा और आवाज़ में पढ़ने लगी :


"Love is not only made for lovers, it is also for friends who love each other better than lovers. The true friend is very hard to find, difficult to leave and impossible to forget."

(कमेंट्स में original को कॉपी पेस्ट कर दिया  है)


नटखटपन के साथ साहेब की टांग खिंचाई का मक़सद As Usual. मैने इशारों में साहेब के दो गहरे वाले मित्रों (Gender neutral) को याद दिलाया, साहेब ने कप टेबल पर रखा और चेहरे पर रजपूती झलकने लगी.😀


साहेब : कहना क्या चाहती हो ?


मैं : कुछ तो नहीं. बस यूँ ही सोचा ये दोस्त तुम्हें भूल गए होंगे मगर तुम नहीं भूलोगे. पहचान नहीं पाते ना तुम इंसानों को 😃😃


साहेब : यार जब कोई फल डिलिवर होता है तो अच्छा ही तो दिखता है, ख़राब निकले तो फेंक देते हैं. अंदर घुस कर थोड़े ही देखते हैं.


मैं : नहीं तुम तो फ़्रूट शाप वाले को फ़ोन करते हो जो तुम्हारा चेला भी है (भरे पड़े हैं चेले हज्जाम से लेकर बड़े बड़े अफ़सर प्रोफ़ेसर indusrialsts etc tak) बोलेगा सॉरी सर, दूसरा भेज देता हूँ. 


बस बहने लगी "ज्ञान गंगा" 😃😃😃


साहेब : तुम जानती हो ना ये सब प्यार और दोस्तियाँ feelings की बातें होती है. जब तक feelings क़ायम रहती है हम उस ढाँचे को दोस्त समझते है क्योंकि वह feelings के लिए vehicle होता है. जब फ़ीलिंग्स नहीं बची रहती तो ढाँचे के साथ यथायोग्य 😃😃.


साहेब के पेट्ट फ़्रेज "मेरे जाने" के साथ "सब सापेक्ष है" या "Metaphors की अपनी limitations है" की वैधानिक चेतावनी  जुड़े उस से पहले ही मैने हम दोनों के फ़ेव तलत महमूद साहब के गाने ग़ज़ल लगा दिए थे, आज उनकी 98th Birth Anniv जो है.


बातों का रुख़  चाय की नई चुस्की के साथ बदल गया था. ठहाके लगे थे जब गाना आया "मेरी याद में तुम ना आंसू बहाना" और "ऐ मेरे दिल कहीं और चल." 


सच कह रहे थे साहेब feelings के एहसास अजर अमर होते हैं आत्मा की तरह, बाक़ी सब तो नश्वर शरीर की हरकतें, जिसकी जैसी करनी वैसी भरनी.😊

कब पहचाने जाते हैं : विजया

 कब पहचाने जाते हैं...

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राह पे चलने वालों का क्या 

धूल उड़ाते जाते है,

प्रेम में जो बर्बाद हुए वो 

कब पहचाने जाते हैं...


शूलों ऊपर फूल खिले हैं 

सुगंध वही और रंग वही 

वही जीना, अभिनय भी वही है 

अन्दाज़ वही और ढंग वही...


विष अमृत के अंतर को 

कैसे समझूँ कैसे जानूँ,

तेरे हाथों से दिया है तुम ने 

बस पीना, इतना मानूँ...


तट पर थम कैसे जानोगे 

सागर की गहराई को,

जाना है उस पार, क्यों रोते 

केवट की उतराई को...


क़ैद हो गए अपने घर में 

क्या जानो तुम सृष्टि को 

दृश्य देख कर बहल गए हो 

जाँचो अपनी दृष्टि को...


दृश्य, दृष्टा और पृष्ठभूमि का 

रिश्ता जब तुम जानोगे,

सच क्या है और क्या है मिथ्या 

स्वतः सहृदय हो मानोगे...

पीत रंग : विजया

 पीत रंग 

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पीत रंग पहिर नाची, मीरा रानी पीताम्बरी 

पीत रंग पुष्प भैज्यो, मित्रता है मनोहारी 

पीत सरसों खिल आई, खेती है हरी हरी 

पीत रंग परकास को, रात कारी टरी टरी...

तड़फ...

 तड़फ...

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कैसी है ये आस 

ऐसे क्यूँ एहसास 

मैं हूँ दरिया के पास 

फिर भी कैसी ये प्यास,

क्यूँ सराब से भरमाऊँ  

ये तड़फ समझ ना पाऊँ ...


कोई हुआ ना गुनाह 

नहीं रखी कोई चाह 

चला अपनी ही राह 

चाहे आह हो या वाह 

ग़म के जाम क्यूँ छलकाऊँ 

ये तड़फ समझ ना पाऊँ...


मैने पाया जब तब 

जैसे रूठा मेरा रब 

हुआ मुनसिफ़ बेअदब 

सजा दे दी बेसबब 

कैसे खुद को बचाऊँ 

ये तड़फ समझ ना पाऊँ...


हुआ ऐसा ये अजीब 

फेंक डाला है सलीब 

भूला दोस्त ओ रक़ीब 

आया खुद के क़रीब 

सुकूँ रूह का मैं पाऊँ 

ये तड़फ समझ ना पाऊँ...


सराब=मृगतृष्णा

झलक दिखाई नहीं देती : विजया

 झलक दिखाई नहीं देती...

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बेहद शोर है इस सन्नाटे में 

मुझ को मेरी 

आवाज़ सुनाई नहीं देती,


जीवन की आना पाई में 

खो गई खुद की तन्हाई में 

बाहर निकलने की इस से 

मुझे राह दिखाई नहीं देती,


ग़म के बादल छाये हैं,

मैं रोती हूँ बरसातों में 

गीले मौसम में मेरी 

नम आँख दिखाई नहीं देती,


नज़र के सामने होता जब 

नज़रंदाज़ किया करती हूँ मैं 

ना जाने कहाँ अब मैं खोजूँ 

एक झलक दिखाई नहीं देती...


(मेरी पुरानी अनगढ़ रचना)

पछतावा : विजया

 पछतावा...

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बड़ी अजीब चीज़ है 

यह पछतावा भी,

ना तो सही फ़ैसले 

आपका पीछा छोड़ते हैं 

ना ही ग़लत फ़ैसले,

एक ख़लिश सी बनी रहती है 

काश ऐसा होता 

तो ऐसा हो जाता 

काश ऐसा हो पाता 

तो ना जाने क्या क्या हो जाता,

कुछ भी कहो 

कशम कश का यह दौर भी मज़ेदार

एक नए तजुर्बे सा, 

कुछ भी कहो

काश और पछतावे में भी 

बड़ा दोस्ताना होता है....


(पुराने काग़ज़ों से)

कुरबतें और फ़ासले : विजया

 कुरबतें और फ़ासले...

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कुरबतें 

अंधा कर देती है 

फ़ासले 

चाहे एक कदम पीछे हो कर बनाए जाय

असलियत के एहसास करा देते हैं...


क्यों हिचकिचाना 

लौटो ज़रा सा पीछे 

हो जाएगा इल्म

कि परिंदा जानता हैं

उसे लौटना कहाँ है..

समझ जाओगे तुम भी 

कितना सा फ़र्क़ है 

थामे रखने और छोड़ने के बीच...


(पुराने काग़ज़ों से)

खुद में लौट आएँ.....

 ख़ुद में लौट आएँ..

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ना हो तलब ना ही तमन्ना 

वह लम्हा फिर से चला आए

अब सुनें कुछ दिल की ऐसे के 

उठें ,चलें और  ख़ुद में लौट आएँ...


आँधियों में उड़ी ख़ाक से 

भर गया है घर मेरा 

साफ हो जब तलक गर्द

किसी कोने में ख़ुद को सिमटाया ज़ाए...


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती

हुआ है पानी हर दरिया का 

लगा डुबकी खुद के समंदर में

लबों को टुक भिगोया जाए...


जागना और सोना 

हैं यक सिक्के के ही दो पहलू

सोए हैं पाँव पसार जिस चद्दर पर 

हो लिहाफ़ वो सिर पे चली आए...


बीज और माटी का 

कैसा ग़ज़ब ये रिश्ता है 

दबे, नमू हो,पनपे, खिले,मुरझाए 

गिरे, फिर से माटी हो जाए...


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मायने :


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती=तीनों ही दूषित या polluted को जताते हैं


नमू हो =अंकुरित हो

खूबसूरत....

 खूबसूरत...

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उगता सूरज 

पानी में उसका अक्स 

फूलों में अक्स 

बिल्लोर का प्याला 

उस में भी अक्स,

सब की ख़ूबसूरती को उभार देता है 

सूरज का अक्स,

खूबसूरत हो जाता है समाँ

हर शै खूबसूरत 

हरसू ख़ूबसूरती 

बाहिर भी...भीतर भी 

बस ऐसा ही तो कमाल होता है 

रोशन ख़यालों का...


(Please glance the pic in comments section)

जुमले पुराने काग़ज़ों से (२) : विजया

 🔹

वक़्ते जुदाई उस ने पूछा था : याद आएगी ?


कह दिया था मैने : याद जाएगी तो याद आएगी ना...😊


🔹🔹

मिला तो पूछा था उसने : क्या करती रही थी.


कह दिया था मैने : दीवारों से बातें करती थी, मगर जवाब कभी 

भी नहीं मिला.😊 (अबोला-आख़िर तुम जैसी ही तो हैं ये भी)


🔹🔹🔹

मोह निगौड़ा छूटे तो 

खोने का डर भी निकल जाए 

फिर चाहे 

दौलत हो, कोई चीज़ हो 

रिश्ता हो  या जिंदगानी...


मगर तेरा साथ 

उसे जाने कहाँ देता है 

तुम कहते हो तो मान लेती हूँ 

बीज है फलेगा तो प्रेम हो जाएगा 

फिर.....फिर......ना जाने क्या क्या,

फिर भी मुझे नहीं बदलना, 

मैं तो बीज बचाए रखूँगी 

जब मन होगा बोऊँगी😊😊


(पुराने काग़ज़ों से )

जुमले पुराने काग़ज़ों से (१) : विजया

 🔹

स्याह को मान लेने की ख़ातिर सफ़ेद को जान लेना ज़रूरी होता है.😊


🔹🔹

अना को लगी चोट को जिसने दिल में पाल कर रख लिया वह दूसरों की ख़ुशी में खुश और दुःख में दुखी नहीं हो पाता...सच तो यह है कि वह किसी से प्यार नहीं कर सकता.


🔹🔹🔹

पुराने घाव कुरेदने से नए घाव पैदा हो जाते हैं...और यह सिलसिला ताज़िंदगी जारी रहता है.


🔹🔹🔹🔹

याद भूला दी जाती मगर हमने पाल लिया था उसे ज़ख़्म बना कर....ख़यालों में रहने लगी हर लम्हा दर्द बन कर.


(पुराने काग़ज़ों से)

सफ़र में ग़र साथ...: विजया

सफ़र में ग़र साथ...

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सफ़र में ग़र साथ 

ये तुम्हारा नहीं होता 

नसीब में मेरे भी 

किनारा नहीं होता...


मौज़ों के थपेड़ों ने 

लिख दी थी तहरीरें 

कैसे पढ़ पाती मैं 

जो सहारा नहीं होता...


मेरे इरादे ना बदलेंगे 

मीनारे रोशनी हो ना हो 

काली अमावस में 

क्या तारा नहीं होता...


लड़ना है अकेले ही 

तूफ़ाँ से तुम्हें माँझी 

जज़्बा ए जिगर का सुन 

कोई इदारा नहीं होता...


इदारा=संस्था, organisation.

पर्याप्त होना ही पर्याप्त...

 

पर्याप्त होना ही पर्याप्त...

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पुनर्जन्म 

मानव का ही नहीं 

मेरा भी होता है,

युगों से मैने भी खेले हैं खेल

आरम्भ-समापन-आरम्भ के

दे देता है जिन्हें मानव 

जन्म जन्मांतर योनियों के नाम,

फ़र्क़ 

दृश्य और अदृश्य हाथों का है 

ख़्वाब और तबीर का है 

तसव्वुर और हक़ीक़त का है 

मगर फ़र्क़ कहाँ 

कहीं फ़र्क़ बस समझ का तो नहीं है...


साहिल से साहिल

समंदर से समंदर 

महानद से महानद 

अनगिनत कहानियों को

देखा,झेला और अपनाया है 

ना जाने किस किस का राज 

मेरे अंतर में समाया है...


मनु का अरुण केतन

समा जाना द्वारका का 

धीवर का अनुनय

सेतु रामेश्वरम का 

अमृतघट और विषपान शंकर का 

कभी सिंदबाद

कभी सफ़र गुलीवर का 

कभी कोलंबस

कभी वास्को द गामा

कभी कप्तान कुक 

कभी रोज़-जेक नामा 

तूफ़ाँ भी देखे अमन भी 

पोशिदा सागर में 

गौहर है और चमन भी...


छूकर सागर जल को 

बढ़ती रही थी मैं 

संग लहरों के 

उतरती चढ़ती रही थी मैं,

जल में रहना है जीवन मेरा 

मुझ में जल मौत मेरी है 

रहने दो आज यहीं पर ऐ दोस्त !

वफ़ा और बेवफ़ाई की बातें बहुतेरी है...


हवा के रुख़ को 

पहचाना था माँझी ने 

कंपास की अहमियत 

जानी थी साझी ने 

ग़ैरों को मैने पार लगाया था

अपनों ने मुझे 

बार बार डुबोया था 

जब जब मेरा वजूद 

चट्टानों से टकराया था 

सागर ने 

मेरे घावों सहलाया था...


दुस्साहस किसी का 

भटका देता था मुझ को 

अनायास घनी बालू में 

फँसा देता था मुझ को 

अनगिनत दस्तानों की तफ़सील 

आज अधूरी है 

पर्याप्त होना ही 

होता है पर्याप्त दुनिया में 

क्या प्रभु की कोई भी कृति 

हर दृष्टि से यहाँ पूरी है ?