Monday, 21 December 2020

सहस्रार...

 

सहस्रार,,,

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पाने को 

कहते हैं संसार 

खो देना सब कुछ 

कहलाता 

सहस्रार,

है उन्मत्तता 

परमानंद 

नहीं होता जिसका 

कोई आकार,,,

ना चाहूँ मैं 

ऐसा सहस्रार 

मुझे तो प्रिय 

समग्र संसार,

अपना लूँ स्वत: 

सहस्र कमल दल 

जब जब जाना हो 

उस पार,,,

जी लूँ 

निज जीवन का सार 

अपना कर 

जगती का व्यवहार,

स्वीकारूँ 

दुःख सुख को समरूप 

करूँ ना 

कोई मैं प्रतिकार,,,

हो चाहे 

अपना मार्ग दुश्वार

गंतव्य का हो ना कोई

प्रकार,

क्या सम्भव है विराग 

जीये बिना 

अभिसार

हो यह अंतर शोध 

लगातार,,,


(कविता के पृष्ठभूमि में कुछ तंत्र और ध्यान....या यूँ कहें परमनोविज्ञान की बातें हैं जो नोट्स के रूप में कमेंट्स सेक्शन में दी गयी है...उनके अवलोकन की सादर अनुशंसा.)

Notes :


सात चक्रों की बात आती है : मूलाधार,स्वाधिस्थान, मणिपुर,अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार. सहस्रार एक भिन्न विषय हो जाता है यहाँ तक कि कुछ विद्वान इसे चक्र तक नहीं मानते क्योंकि इड़ा और पिंगला का प्रभाव नहीं होता इसमें. 

कुछ इसे सर्वोपरि और तुरीय अवस्था का प्रतीक मानते हैं.


१. सहस्रार परम तत्व का स्थान है. इसी स्थान से मनुष्य स्व भाव की वासना से मुक्त हो कर ब्रह्म भाव के सत्य की और बढ़ता है तथा समाधि अवस्था को प्राप्त करता है. अगर शरीर का पूर्ण प्राण एक हो कर सहस्त्रार चक्र में केंद्रित हो जाता है तो व्यक्ति निश्चय ही समाधी अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जहां पर उसका अस्तित्व ब्रह्म में विलीन हो जाता है.आध्यात्मिक द्रष्टि से यह एक अत्यंत ही उच्चतम अवस्था कही जा सकती है जहां से व्यक्ति विविध ब्रह्मांडीय रहस्यों तथा सत्यों से परिचित होने लगता है. 


२.सहस्रार कोई मार्ग नहीं है। जब हम मार्ग शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उसका मतलब होता है - एक सीमाओँ में बँधा, स्थापित रास्ता। सीमा में बाँधने के लिए आपको एक भौतिक स्थान की जरूरत होती है। सहस्रार कोई भौतिक स्थान नहीं है। शरीर के भूगोल में उसकी मौजूदगी है, मगर वह किसी भौतिक स्थान का प्रतीक नहीं है। इसलिए, उससे जुड़ा कोई मार्ग नहीं है।

सभी देवताओं में शिव सबसे बलवान और ऊर्जावान हैं। इसका मतलब है कि वह सक्रीयता(एक्शन) के प्रतीक हैं, मगर वह भी कई बार सहस्रार में होने के कारण उन्मत्त(नशे से भरे) रहते हैं।


३.रामकृष्ण परमहंस काफी समय सहस्रार अवस्था में थे

इसे लेकर कई कहानियां हैं मगर एक प्रभावशाली उदाहरण होगा, तोतापुरी और रामकृष्ण परमहंस का। रामकृष्ण सहस्रार में बहुत अधिक रमे हुए थे इसलिए उनका लंबे समय तक जीवित रहना मुश्किल था। क्योंकि यह ऐसा स्थान नहीं है, जहां आप भौतिक शरीर में बने रह कर धरती पर मौजूद रह सकते हैं। वह आनंदपूर्ण और शानदार अवस्था है, मगर वह शरीर में बने रहने लायक स्थान नहीं है, वह ‘जाने वाला’ स्थान है। आप बीच-बीच में उसे छूकर वापस आ सकते हैं। जब कोई व्यक्ति वहां लंबे समय तक रहता है, तो उसका शरीर साथ छोड़ देता है।


४.आपने सुना होगा कि तोतापुरी ने शीशे का एक टुकड़ा लेकर रामकृष्ण के आज्ञा चक्र पर वार कर दिया ताकि सिर्फ परमानंद में तैरते रामकृष्ण को स्पष्टता और बोध तक नीचे लाया जाए। क्या परमानंद में तैरना अच्छी बात नहीं है? यह बहुत बढ़िया है मगर उस स्थिति में आप न तो काम कर सकते हैं और न ही कुछ प्रकट कर सकते है। यह स्थिति नशे जैसी होती है। यह अवस्था बहुत बढ़िया और अस्तित्व संबंधी रूप में शानदार होती है, मगर आप उन अवस्थाओं में काम नहीं कर सकते। चाहे आप काम कर भी लें, तो आप बहुत प्रभावशाली नहीं होंगे। यह भौतिक और अभौतिक के बीच एक धुंधली दुनिया है।


Sunday, 13 December 2020

तरंगें मेरे सोचों की....: विजया

तरंगें मेरे सोचों की...

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कितनी रंगीन है 

ये तरंगें मेरे सोचों की,

चंचल चपल तितलियां

लेकर रंग फूलों और पत्तियों से 

पहुँचा रही है चहुँ दिशि 

स्पंदन मेरे चिंतन के...


लिया हैं लाल से 

साहस और बलिदान 

ले ली है पीले से 

आशा और ख़ुशी 

मिलकर 

श्वेत की पवित्र शांति संग 

उभर आया है 

रंग शरबती 

मेरे सोचों के 

खिले खिले फूलों में...


नकारात्मकता के काले रंग को 

लगा कर गले 

सफ़ेद की मासूम सकारात्मकता ने 

बना है मेरा 'ग्रे मैटर'

समा कर जो पत्तियों में 

खिला रहा हैं  अधिकाधिक 

मेरे फूलों को 

कर रहा है सहज ही सिद्ध 

भावना और विवेक का सामंजस्य ही तो 

सौंदर्य है मानव का...


नहीं नकारा है मैं ने 

अस्तित्व उलझे केशों का 

स्वीकारा है उसको भी तहे दिल से,

आवश्यक है सह प्रतिपक्ष भी

समग्र जीवन जीने के लिए 

खिला देती है और अधिक 

ये उलझने भी 

रंग मेरे फूलों और पत्तियों के...


प्रतीक्षा में है 

मेरे  बंद नयन 

समाया हैं जिनमे उद्यान मेरा,

व्याकुल  है 

लाली मेरे अधरों की 

पाने को स्पर्श 

उस गर्माहट का 

जो आओगे लेकर तुम 

केवल मेरे लिए

मुसकाऊँगी मैं 

खिल खिलाऊँगी... नाचूँगी मैं 

तितली की तरह 

समा जाएगा जब तू भी

मेरे रंगे चमन में...


---विजया (07.12.2020)

एक नफ़्सीयाती नज़्म,,,,,,


एक नफ़्सीयाती नज़्म : A Psychological Poem

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रूखे रूखे गेसू मेरे 

मेरे अपने जज़्बातों जैसे

उलझ गए थे सूख कर,

बढ़ जाती थी धड़कने दिल की 

तनाव ही तनाव मांसपेशियों में 

अजीब सा खिंचाव सीने में 

होती थी जिद्द किसी चीज़ को पाने के लिए 

होता था महसूस बेहद लगाव किसी से,

इज़्तिरार कहा था किसी ने 

कह दिया था इज़्तिराब भी इसको,

लिख दिया था तबीब नफ़्सी ने 

'Anxiety' अपने नुस्ख़े में...


पड़ गए थे काले 

पत्ते सारे चमन के 

गिर गए थे मुरझा कर 

फूल भी सारे 

खो दिए थे तितली ने भी 

रंग अपने 

समा गया था सहरा वीरां ज़िंदगी में 

कर रही थी महसूस हारा थका ख़ुद को 

हो गया था कम ख़ुद एतमाद मेरा 

नहीं टिक पाता था मन 

किसी भी काम में मेरा 

रखने लगी थी मैं ख़ुद को दूर 

अपनों से, ग़ैरों से और हुजूमों जलसों से,

बदल बदल जाते थे मिज़ाज मेरे अचानक 

दिखने लगते थे हरे 

वो काले पत्ते मुझ को 

खिले खिले लगने लग जाते थे 

फूल चमन के मुझ को 

लौट आए लगते थे तितली के रंगो रक़्स,

चहकने लगती थी मैं

बहकने लगती थी मैं

लगता था छू लूँगी आसमाँ को इस बार तो 

मगर अफ़सोस !

लौट आता था फिर के 

वही दौर फिर से ज़ेहनी दवाब का 

इस बार पर्चे में लिखा था 

तबीबे नफ़सियात ने 

'ज़ेहनी दवाब की वजा से दीवानगी'

Manic Depression-Bipolar Disorder...


दवा ओ दुआ का दौर भी जारी है 

मुझ को फिर से बनाने की मेरी भी तैय्यारी है 

शुक्रिया !

मुझे अपनी पहचान करा देने के लिए 

अंधेरे में एक उम्मीद की किरण जगा देने के लिए 

अपनी मज़बूती ही खड़ा कर सकती है मुझे 

पाँवों पर अपने 

एहसास यह मुझ को करा देने के लिए 

ज़िंदगी है एक नैमत जान लिया है मैं ने 

कोई दूसरे के बदौलत नहीं जिंऊँगी, 

जीऊँगी अब ख़ातिर अपने 

फ़ैसला यह ख़ुद को सुना दिया है मैं ने 


तुम से खिले फूलों पर 

मंडराती हूँ मैं तितली सी 

मेरी थिरकन है तुम्हारे लिए 

मेरे सूर्ख होठों पर प्यास है तुम्हारी,

छा गए है मेरे चेहरे पर 

मेरी एक नज़र का इंतज़ार 

बेताबी मेरी दूसरी नज़र की,

पुकारती हूँ मैं बार बार 

चले आओ ! चले आओ !

पिलाने को मुझे अपना आबे हेवां,

समा लो मुझे अपनी बाहों में 

चला लो 

अपनी प्यार भरी राहों में

थाम कर हाथ मेरा,

जनम गयी है मुझमें आज 

शिद्दत से जीने की तमन्ना,

जानते हो तुम 

जानता है अल्लाह मेरा 

तबीबे नफ़सियात के पास 

इलाज है महज़ जिस्म का

रूह का नहीं...


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मायने : नफ़्सियाती=मनोवैज्ञानिक/psychological

नफ़्सियात=मनोविज्ञान/psychology

तबीब नफ़्सी=मनोचिकित्सक/psychiatrist/सायकॉलिजस्ट 

ख़ुद एतमाद=आत्म विश्वास/ self confidence

इज़्तिरार=आतुरता, व्यग्रता 

इज़्तिराब=व्याकुलता, बेचैनी 

रक़्स=नृत्य, ज़ेहनी=दीमागी, जिस्म=देह,रूह=आत्मा

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Wednesday, 28 October 2020

हृदय मस्तिष्क देह और आत्मा...: विजया



हृदय मस्तिष्क देह और आत्मा 

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फुसलाती है वांछाएँ 

हृदय को,

बना देता है बंधक; आकर्षण 


मस्तिष्क को,

कर देती है उद्दीप्त; वासनाएँ

देह को,

प्रेम मात्र प्रेम भी 

करता है उपभोग 

आत्मा का..


टूट सकता है 

हृदय,

डगमगा सकता है 

मस्तिष्क,

छोड़ देता है अंतत: साथ 

तनु,

और आत्माएँ ? 

हो जाती है आत्माएँ भी 

विपाशित...


किंतु यदि...

करे कोई पोषण 

हृदय का,

दे निरंतर प्रोत्साहन 

मस्तिष्क को,

करे पूजन 

गात का,

और करे प्रभरण

आत्मा का...


तो


देगा ताल स्वरमेल में 

हृदय,

करेगा चिंतन संवेदन में 

मस्तिष्क,

होंगे चालित एकत्व में 

शरीर,

और हमारी आत्माएँ ?


हो सकेगी 

स्वतंत्र 

स्वावलंबी 

आत्माएँ हमारी...

Thursday, 22 October 2020

मैले सिक्के,,,,


मैले सिक्के,,,,

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अंतरंग और बहिरंग 

एक दूजे का 

अपना ही तो होता है 

प्रेम में,,,


लुभाता है सौंदर्य

हर परिवर्तन का,

कर देता है आनन्दित 

मन मस्तिष्क को,

आ जाता है

विचित्र सा ठहराव जीने मे

एकरसता से किंतु ;

प्रवाह की निरंतरता 

ही तो है 

जीवंतता जीवन की,,,


हाँ ! गुज़र जाते हैं 

कुछेक बदलाव भी 

होकर सबब 

मायूसियों के भी 

उदासियों के भी,,,


ये उदासियाँ 

ये मायूसियाँ 

नहीं है क्या अर्जन 

हमारे ही अपने प्यार का,

खर्च कर उन्हें

कर सकते हैं हम हासिल

ख़ुशियाँ कई गुनी,,,


आओ ना !

पा लें आज फिर से 

वही मोहक मुस्कान 

वही उन्मुक्त हँसी 

वे ही सुरीले गीत 

वो ही उमंगें 

उड़ा कर ये मैले सिक्के 

उदासियों और मायूसियों के,,,



Sunday, 18 October 2020

एक बिछुड़ना अनोखा सा : लम्बी कबिता


थीम सृजन : ब्रेक अप 

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एक लम्बी कविता कई दशकों पूर्व मेरी क़लम द्वारा घटित हुई थी...मेरी प्रिय प्रभा दी (स्वर्गीय डा. प्रभा खेतान) की पसंदीदा. उनके साथ बैठ कर कुछ एडिट भी किया था फिर ना जाने क्यों छोड़ दिया था..इस थीम में अवसर मिला है. कविता का 'जीर्णोधार' करके थोड़ा छोटा करके...सृजन संगम के पाठकों के लिए ग्राह्य बनाने का उपक्रम है..शायद दो या तीन भाग में पेश कर सकूँगा.

एक बिछुडना अनूठा सा,,,(प्रथम भाग)

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बिछुड़ना : ध्वनि मौन की,,,

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भीड़ में उस दिन तुम ने

छोड़ दिया था नितांत अकेला उसको 

तेरे बिछुड़े हाथ की तलाश में 

कहाँ कहाँ नहीं भटका था वह 

मिले थे वे परिचित चेहरे

जो मान्यताओं के चाबुक से कर रहे थे लहू लुहान

उसके नग्न भग्न अस्तित्व को,

बन कर दंडाधिकारी सुनाए जा रहा था झुंड 

एक बिन माँगा फ़ैसला 

करते हुए एक तरफा विवेचन 

उसके अनकिये अपराधों का,,,


किया जा रहा था साबित 

गलत है वह....सरासर ग़लत है वह 

और...इस से भी ज़्यादा गलत बन सकता है,

जब जब  खुले और दर्दाए थे रिसते घाव उसके 

खुल गयी थी दया के दिखावे के साथ साथ 

नमक भरी मुट्ठियाँ 

मरहम की बात जब जब उठी

उन्होंने भी याद दिलाया...उस को भी याद आया था 

कोई ऐसा भी आया था जीवन में

जिसने नज़रों से सहला कर 

भर डाला था जन्मों पुराने घावों को,

जी खोल कर दी थे जिसने मरहम मुस्कानों की 

मगर एक जल-जला अचानक ऐसा आया था

कि कुरेद कर चुपके से 

बना दिया था हरा सभी घावों को,

आपा धापी में चल दिया था वह शोख़ 

फिर मुँह छुपा कर...


बोलो ! चल क्यों दिए थे तुम इस तरह ?

पुकार बैठा था वह तुम को,

बुलाने लगा था दे देकर आवाजें,

चले आओ ! चले आओ !

सोच थी जेहन में : 

साथ गुजरे लम्हे....देने पाने के अनथक दौर

फिर से लौट आयेंगे..

पल दो पल के लिए ही क्यों ना..

ताकि बिछुड़ेंगे फिर से तो एक निश्छल मुस्कान के साथ,

और फिर मिलने तक

इसी मुस्कान को भग्न प्रेम की विरासत मानते हुए 

जी लेंगे हँसते हँसते,,,


करना चाहा था उसने 

तुम से ही तुम्हारी शिकायत

मगर सूख गए थे उसके शब्द सारे

सूख चला था आँखों से बहता पानी भी,

नहीं कह सकता था वह अब कुछ भी

जो भी था रह गया था बस मौन हो कर 

सुनायी दे रही थी बस : 

Sound Of Silence...ध्वनि मौन की,,,,

एक बिछुडना अनूठा सा,,,(द्वितीय भाग)

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खड़िया से लिखी इबारतें,,,

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हर सुबह तुम्हारी 

शुरू होती थी 

उसके ही नाम से 

हर शाम उसकी 

गाती थी तराने 

तुम्हारे ही नाम के 

तुम थी हीर और वो रांझा था 

ज़िंदगी का पल पल ही साँझा था 

वो ही तुम्हारा हमदम हमनवाँ हमइरादा था 

हर नफ़स में दोनों का ज्यों आधा आधा था 

लगता था साथ एक दूजे के 

हर संगी बंदी और आज़ाद भी था 

दो जिस्म एक जान का ख़िताब 

तुम्हारा ही तो इजाद था,,,


तुम्हारे हर इज़हार में 

होता था कुछ ऐसा

जो शिद्दत से बताता था के

समझ लिया है तुम ने अब 

प्यार वफ़ा चाहत और ज़िंदगी को 

रूह और जिस्म को 

उस को और ख़ुद को 

रुक जाता था हर सफ़र तुम्हारा 

आकर उस तक 

कहती थी तुम बार बार :

"तुम्हीं तो मेरे सफ़र का आग़ाज़ हो 

तुम्हीं तो हो मंज़िले मक़सूद मेरी"...


वो बातें...वो मुलाक़ातें 

वो दिलकश दिनों की हक़ीक़तें 

वो ख़्वाबों से भरी महकती रातें, 

यही तो कहती थी तुम :

"नहीं है ज़रूरत मुझ को अब किसी भी और की

लौट आयी हूँ अब मैं ख़ुद की जानिब 

पहचान लिया है मैं ने अपने 'एसेन्स' को 

समझ चुकी हूँ मैं 'समर्पण'और 'निष्ठा' को,,,

हर मुश्किल तुम्हारी का हल वो था 

हर लड़खड़ाहट में सहारा तुम्हारा वो था,,,


याद आ रही है कहानी टोलस्टोय की माँ की

अतिभावुक अतिसंवेदनशील होती थी वो 

थीएटर में हर भावनात्मक दृश्य रुलाता था उसे जार जार 

बार बार पौंछने बहते हुए आंसू 

चाहिए होता था टिशू पेपर का अम्बार 

ठिठुरती ठंड में कोचवान रहता था चौक चौबंद 

मैडम को बिना एक पल गँवाए पेलेस तक लेजाने को 

ठंड की मार गर मार देती एक कारिंदे को 

तो दूसरे को होना होता था तुरत हाज़िर 

व्यथित मैडम ना जाने कब निकल आए भाव विह्वल हो कर 

रोते रोते हो जाती थी मलका साहिबा सवार बग्घी में 

जीती हुई उस जज़्बाती ड्रामा को 

बिलकुल बेपरवाह कोचवान की मौत से,,,


भावना का कुछ ऐसा ही खेल तो 

खेल लिया है तुम ने,

क्यों मिटा दिया है तुमने वो सब 

जो लिखा था अपने दिलो ज़ेहन पर 

ख़ुद तुम ही ने अपने हाथों से ?

देकर बौद्धिक तर्क और दलीलें 

पलट रही हो अपनी ही कही बातों से

क्यों पहना रही हो जामा उदारता का 

अपनी ही कमज़ोरियों को 

क्यों खड़ा कर रही हो कटघरे में 

समझी स्वीकारी वफ़ादारियों को 

उड़ा दिया है वैसे ही तो सब कुछ तुम ने 

वो कशिश वो रवानी वो मोहब्बतें 

जैसे हटा देता है डस्टर ब्लैक बोर्ड से 

खड़िया से लिखी इबारतें,,,


एक बिछुड़ना अनूठा सा,,,(तृतीय भाग)

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मौन का सम्बोधन,,,

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मौन उसका तुम को कुछ ऐसे सम्बोधित कर रहा था :


"नहीं टिकती ना प्रेम की परत...पाली हुई कुंठाओं पर 

करते नहीं ना प्रतीक्षा...उम्र के तकाजे परिचय से प्रेम तक 

होती है दुनियावी रिश्ते की शुरुआत

शहज़ादे के परी को चूमने से 

और आख़िर में एक तुड़ा मुड़ा सा मर्द देखता है 

एक सहमी सहमी सी औरत को टेबल के उस पार, 

जिस्मानी ज़रूरियात को पूरा करने के ताल्लुक़ भी 

ढल जाते हैं जिस्म ओ जवानी ढल जाने के साथ,

रसूख़ और अनापरस्ती के रिश्ते भी 

हो जाते हैं ज़वाल को हासिल, वक़्त बदलने के बाद,

ख़ुद के खोखलेपन को भरने का सामान नहीं होता बाहिर कहीं 

पाटने होते हैं ये गड्ढे  ख़ुद की होशमंदी और वजाहत से ही 

नहीं मिलते निखलिस्तान सहरा में  बेतहाशा दौड़ने से 

मरीचिकाएँ देती है छलावा ही पानी होने का,,,,


"नहीं है कोई मुहिम अंजाम बता कर लौटा लाने की 

बस है फ़क़त एक 'रिमाइंडर' हल्का सा 

क्या नहीं बैठ सकते दो आज़ाद परिंदे एक ही डाल पर ?

क्या जीने के लिए ज़रूरी है यूँ सौंप देना किसी को ?

बात कर रहा हूँ अस्तित्व बोध की...जात की वुज़ूद की 

जो तुम ने सुनी थी.... तुम ने सोची थी...तुम ने स्वीकारी थी

बढ़ निकली थी तू इस अनंत यात्रा में थामे हुए हाथ मेरा 

कभी भी नहीं माँगा था मैं ने तुम को तुम से 

चाहा था तुम्हारे अस्तित्व अस्मिता और सारतत्व को

यह झीना सा अंतर याचक और प्रेमी का  

शायद समझ नहीं पायी हो तुम,,,


जब देखता हूँ बेमौत मरते उस कोमल अस्तित्व को

उभरा था जो संग में मेरे 

हो उठता है व्यथित रोम रोम मेरा,

हो गया था हावी इस बोध पर मोह जैसा कुछ 

जो आ चुका था एक चोर की तरह बीच तुम्हारे और मेरे 

शायद भगा देते हम मिल कर इस जाने पहचाने प्रवंचक को 

मगर बिछुड़ना भी तो एक नियति है मिलन जैसी,,,


"पीड़ा इसकी नहीं कि अकेला हूँ मैं

अकेलापन मेरा आरम्भ था, तेरा मेरा साथ मेरा उत्कर्ष है 

एकाकीपन मेरा निष्कर्ष है,

तुम जो खुद की पहचान खुद से करने चले थे 

निखार कर स्वयं को

लिए हुए थे चाह अपना अस्तित्व स्वयं उभारने की 

आज क्यों झुका रहे हो अपने आप को उन मूल्यों के आधीन

जो कभी नहीं स्वीकारे हैं तुम ने 

क्यों अपना रहे हो बौद्धिक चालाकियाँ 

मूल में जिनके सिवा आत्मिक विनाश के कुछ भी नहीं है 

थक गए हो तो सुस्ता लो...गुस्से में हो तो बिखर पड़ो

जान लो ख़ुद को आइने के सामने लाकर फिर से 

क्या है तुम्हारा इष्ट, श्रेय और अभीष्ट !


"शुक्रिया !

मुझे अकेलेपन का उपहार देने का,

मुझे मुझ तक लौटा लेने का ,

उन मुस्कानों का...उन फूलों का

जो तेरे मेरे दरमियाँ खिले थे,

महकना चाहा था जिनकी खुशबू से तुम ने

सच ! यह तेरी-मेरी खुशबू है,

जब जब फैलेगी हरसू 

थोड़ी सी सुगंध उसकी भी होगी जो तहे दिल तुम्हारे साथ था,

जब खिली थी पहली कली

शबनम ने जमाया था आसन प्यार से पत्तों पर

याद है ना एक दौर ऐसा भी आया था 

जब हम तुम पिघल कर एक होने चले थे,

इन सभी एहसासात और यादों का सरमाया 

बस हो जाए नींव स्वयं हमारे ही 'प्रेम'  हो जाने की !  

आमीन ! "


एक बिछुड़ना अनूठा सा,,,(चतुर्थ और अंतिम भाग)

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ब्रेक अप नोट,,,

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वरण उस अनूठे सन्यास का हुआ था घटित 

आवरण का मरण हो कर 

पलायन है सर्वथा अनावश्यक इस सन्यास हेतु 

स्वयं को ही बनाना होता स्वयं का सेतु 

उपस्थिति किसी दूसरे की 

हो सकती है साधन...ना कि साध्य 

क्यों लुभाए कोई किसी को, 

करे क्यों किसी को बाध्य,,,


लिखा था उसने एक संदेसा 

इस ब्रेक अप नोट में :

विदा अलविदा जुदा आदि शब्द सापेक्ष है 

इसलिए इन्हें लिखना बेमानी है...

पूरा होने पर जीवन-चक्र...

हो पाए तुम्हें जब एहसास 

कि हट कर होते हैं कुछ भाव 

उम्र, समाज,वांछा, वासना, उपासना और रवाजों से

परे होते है चंद जज़्बात 

जिस्म,अना और रुतबे की ज़रूरियात से 

'अनाक्रमण और सहस्तित्व'

'पंचशील' में प्रयुक्त शब्द मात्र नहीं

हो सकते हैं ये जीवन के यथार्थ भी

चले आना !

ना होगी ज़रूरत किसी पूर्व सूचना या दस्तक की

हूँगा मैं  खुले आकाश  के नीचे.

हम दो ही नहीं हम जैसे अनेकों होंगे

देख पाओगी शायद तुम एक बार फिर 

नृत्य ढाई आखर का

एक अस्तित्वहीन "अस्तित्व",,,

बंध सम्बन्धों के पार : विजया

 थीम सृजन : इश्क़, अलगाव, यादें 

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एक बहुत ही मधुर मराठी गीत (ऋणानुबंधांच्या जिथून पडल्या गाठी भेटीत तृष्टता मोठी) सुना कुमार गंधर्व जी और वाणी जयराम जी की आवाज़ में. कहते हैं यह एक अनुपम अलंकृत काव्यकृति है कृष्ण और उनकी सहचरी रुक्मिणी के बीच हुए प्रेम बोलों के आदान प्रदान को समाए. इसके असली माधुर्य और अभिव्यक्ति का आनंद तो मूल शब्दों और गायन में ही है किंतु मैं ने भी भावों को अपनी भाषा में एक नई तरह से उकेरने का प्रयास किया है. मैं भावानुवाद की यह नौसखिया सी कोशिश ग्रुप पटल पर, अपनी ग़लतियों के लिए क्षमा प्रार्थना के साथ शेयर कर रही हूँ. 

मुझे मराठी भाषा नहीं आती, किंतु मैंने शब्दकोश, अंग्रेज़ी अनुवाद, अपने मन के एहसास और कुमारगंधर्व-वाणी जी की प्रस्तुति से सहयोग लिया है.....मेरे सहचर 'साहेब'  ने भी अपने तौर पर मदद की है कुछ इनपुट देकर, चिढ़ा कर, differ हो कर,मखौल उड़ा कर, प्रोत्साहन देकर इत्यादि...हाँ उनका भी धन्यवाद !😊

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बँध संबंधों से पार...

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ढाले हैं हमने बंध 

सम्बन्धों से पार 

असूदगी है बेइंतहा

हर सुपुर्दगी अपनी में...


थरथराती है अक्सर 

काँपते लबों पे

शाम के धुँधलके की उदासियाँ 

ले आ रही हो साँझ ज्यूँ यादें  

संग बीते लम्हात की   

अनगिनत हिज़्रो विसाल की, 

नहीं बिछुड़े हैं ना हम कभी..मगर

बनावटी झगड़े के बिना ?


रूठने मुझ से 

बिखरे मिज़ाज हैं 

नाज़ों नख़रों में उनके,

उनकी भोली सूरतिया को 

बनाते रहे हैं और भी हसीन 

दिलकश बहाने नाराज़गी के,

एक डोर हो ज्यों 

सिहरन और गरमाहट की 

इसीलिए हुआ है मज़बूत 

बंधन जन्मों से परे का...


हैं कभी इक दूजे से लिपटे 

ख़ुशियों से भरे भरे 

कभी हो कर ग़मज़दा 

सुखद पलों को ज्यूँ याद करे 

कभी मसर्रत में हैं भीगे 

कभी चिढ़ते खीजते हम 

लिखते हुए अपनी यादों को  

ऊँगलियाँ रेत पर घसीटते...


आते रहे हैं संग यहाँ 

कितने जन्मों से हम नामालूम 

बन पाए हैं ना इस कदर तभी 

संगी हर नफ़स के लिए...


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असूदगी=तृप्ति, सुपुर्दगी=समागम,समर्पण 

हिज्र=बिछौह, विसाल=मिलन, मसर्रत=आनन्द/bliss

नफ़स=साँस

पैंटिंग्स : सहज सृजन : युगलकविता

 पैंटिंग्स : सहज सृजन 

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  ( युगल कविता )


साहेब द्वारा स्तुति 😊:

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भाग्य मेरा मुसकाया है : विनोद सिंघी 

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सुंदर कितना चाँद सा चेहरा  

केश राशि ज्यूँ मेघ घनेरा

दमके दामिनी स्वर्ण रेख सी 

बारम्बार लगाए फेरा...


उन्नत भाल दर्पण है मानो 

देखा करूँ बिम्ब मैं अपना 

नयन तुम्हारे चंचल चंचल 

रहे देखते दिन में सपना...


धवल दंत मुक्तामाला से 

अधर गुलाबी धागा है 

सुंदर ग्रीव हंसिनी जैसी 

रंग सोने संग सुहागा है...


पौर त्रय अंगुल समरूप है 

ताम्बूल सम है भव्य हथेली 

देह समानुपात सुकोमल 

अल्हड़ यौवन करे अठखेली...


बिखरा मधु चारु कपोल पर 

सज्जित लाज लोल लोचन पर

मन लुभाय तन को भरमाये

क्यों हठ है फिर स्व-मोचन पर...


दृष्टव्य मुझे यह प्रेम क्षुधा है 

शृंगारमयी यौवन वसुधा है 

मौन निमंत्रण है अभिसार का 

प्रकट घटित चौसठों विधा है...


सृष्टि की तुम कृति अनूठी 

अनुपम सच या माया है 

भुजबंधन में आज हो मेरे 

भाग्य मेरा मुस्काया है ...


मेरी अभिव्यक्ति : प्रत्युत्तर

🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹


पुष्प तोड़ तुम लगे खोजने : विजया सिंघी 

++++++++++++++++++++++


शब्द संधान कुशल हूँ मैं भी 

चला सकूँ मैं बाण सुनहरे 

उन्माद अद्भुत जिया है हमने 

अब तो तुम कुछ पैठो गहरे...


तन यात्रारत नयन तुम्हारे  

मन को कैसे समझेंगे 

क्षण भंगुर क्या इष्ट तुम्हारा 

कब तक ये यूँ भटकेंगे...


नयनों की करुणा ना बांची 

ना किया हृदयंगम हास को 

पुष्प तोड़ तुम लगे खोजने 

सुखमय स्निग्ध सुवास को...


अंग अंग तक करके विचरण 

अंतर तक क्या पहुँचे हो ?

समानुपात सुकोमल कहते 

सोचो तुम कितने सच्चे हो ?


अंग तुम्हें सर्वत्र मिलेंगे 

किंतु ना मैं मिल पाऊँगी 

ना सकी रीझा स्तुति तुम्हारी 

सौगंध ! मैं ना हिल पाऊँगी...


प्रशंसा मेरे अंग प्रत्यंग की 

क्षणिक उत्तेजन कर पाए, 

पहुँचे हृदय तक उसी द्वार से 

या शब्द आवृत्तन कर जाए ?


यौवनरस अनुपान है वांछित 

क्या वहीं हमें रुक जाना है 

प्रेम मिलन विस्तारण कर या 

सत् चित्त आनन्द पाना है ?

चोट आख़री : विजया



चोट आख़री 

++++++


सौदा ए इश्क़ महज़ मुहावर है यक 

ज़िंदगी में तिजारत चलाता गया 

अना के हिर्स ने मुझ को गाफ़िल किया

साँप आस्तीं में अपने पलाता गया 

शराब ना थी ज़हर था कराब: में 

जाम फिर भी मुससल ढलाता गया...


वो आया और आकर यूँ कहने लगा 

इश्क़ तुम से ही, तू अभी तक क्यूं ना मिला 

मुरझाई थी कब से यह बगिया हसीं

तेरे आने से, हर गुल यहाँ का खिला 

पाप-पुन्न थोथी बातों में माहिर था वो 

जो भी जैसा मिला, उसको वैसा सिला...


बहाने थे रस्ते रूह से हो कर जाने के 

जिस्म का दर, जिस भी चाभी से खुलता मिला 

ख़रीदार ऐसा, ठसा ठस था खीसा भरा 

निकला हर कोई सिक्का जो चलता मिला 

खेल दिल के निरालों का शौक़ीन वो 

कोई आया तो, कोई निकलता मिला...


ग़लत माना वो नहीं, जो कुछ उससे हुआ 

ठीकरा सिर औरों के, फोड़ता सा मिला 

ज़िक्र क़समों का था फहरिस्त-ताम में 

जो ना खा सके, हो जूठन वो छूटता सा मिला 

आइना ख़ुद ही देखा, चल दिया लौट कर 

घबराया ज्यूँ अक्स उसका, टूटता सा मिला...


उजड़ा आशियाँ अपने ही हाथों से जब 

महफ़िल खुल्ले में कोई सजाता मिला 

जमीं थी खुली, आसमां था खुला 

कोई खो कर गया, कोई पाता मिला

लाखों मिन्नत ओ सजदे हुए बे असर 

चोट आख़री जो हद्दाद लगाता मिला...


(मायने: सौदा=लेनदेन/transaction, तिजारत=व्यापार,अना=अहम,हिर्स=लालच 

क़राब:=शराब की सुराही,फहरिस्त ताम=menu,

हद्दाद=लोहार)

Wednesday, 16 September 2020

ग़ैर और अपने,,,


ग़ैर और अपने,,,

##########

मिल जाते हैं 

राहे ज़िंदगी में ऐसे रहबर 

जो हमको हम से ही 

चुरा लेते हैं,,,


रहजन भी 

होते हैं ऐसे 

जो हम पे 

ख़ुद को लूटा देते हैं,,,


कैसे शुक्रिया करूँ 

अदा तेरा ऐ मौला 

ग़ैर हिम्मत देते हैं 

अपने डरा देते हैं,,,,


(रहबर=मर्गदर्शक, रहजन=लुटेरे)

आगमन प्रेम का : विजया

 

आगमन प्रेम का...

+++++++++++++

हुए हम स्पर्शित जैसे 

एक देवदूत से 

होता है ऐसा ही 

आगमन प्रेम का 

जीवन में...


नहीं होते हैं आदी हम 

अदम्य साहस के 

तभी तो हो जाते हैं निर्वासित 

आनंद की अनुभूतियों से 

रहते हैं हम बने हुए बंदी 

अपने अकेलेपन के घेरे में 

जब तक 

नहीं चला आता है प्रेम 

दृष्टि में हमारी 

निकल कर 

अपने पावन मंदिर से,

होता है प्रेम प्रतिबद्ध 

करने को मुक्त हमें 

हमारे ही जीवन में...


होता है प्रवेश 

जब प्रेम का 

जीवन में हमारे 

चला आता है 

परमानन्द भी उसी रथ में 

लिए संग में 

प्रसन्नता की पुरानी स्मृतियाँ 

पीड़ा का प्राचीन इतिहास,

फिर भी सबल हैं यदि हम 

काट देता है प्रेम 

भय की बेड़ियों को 

जो जकड़े हुए हैं 

हमारी आत्मा को...


होते जाते हैं 

विमुक्त हम 

अपनी भीरुता की प्रवृति से,

आभा प्रेम के आलोक की 

देती है हमें प्रेरणा 

वीर होने की,

होता है अनुभूत अचानक 

कि चुका रहे हैं हम सब 

महँगा मूल्य प्रेम का,

फिर भी प्रेम ही तो है

जो कर पाता है हमें स्वतंत्र

हमारी अपनी ही 

साँकलों के बंधन से...


(माया ऐंजिलो-की कविता 'Touched By An Angel' से प्रेरित)

एक बिछुड़ना अनूठा सा : लम्बी कविता

 



एक बिछुडना अनूठा सा,,,
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एक लम्बी कविता कई दशकों पूर्व मेरी क़लम द्वारा घटित हुई थी...मेरी प्रिय प्रभा दी (स्वर्गीय डा. प्रभा खेतान) की पसंदीदा. उनके साथ बैठ कर कुछ एडिट भी किया था फिर ना जाने क्यों छोड़ दिया था..
कविता का 'जीर्णोधार' करके थोड़ा संशोधन करके ग्राह्य बनाने का उपक्रम है यह...कविता चार भाग में पेश हुई है.

एक बिछुडना अनूठा सा,,,
#############
(१)
बिछुड़ना : ध्वनि मौन की,,,
#############

भीड़ में उस दिन तुम ने
छोड़ दिया था नितांत अकेला उसको 
तेरे बिछुड़े हाथ की तलाश में 
कहाँ कहाँ नहीं भटका था वह 
मिले थे वे परिचित चेहरे
जो मान्यताओं के चाबुक से कर रहे थे लहू लुहान
उसके नग्न भग्न अस्तित्व को,
बन कर दंडाधिकारी सुनाए जा रहा था झुंड 
एक बिन माँगा फ़ैसला 
करते हुए एक तरफा विवेचन 
उसके अनकिये अपराधों का,,,

किया जा रहा था साबित 
गलत है वह....सरासर ग़लत है वह 
और...इस से भी ज़्यादा गलत बन सकता है,
जब जब  खुले और दर्दाए थे रिसते घाव उसके 
खुल गयी थी दया के दिखावे के साथ साथ 
नमक भरी मुट्ठियाँ 
मरहम की बात जब जब उठी
उन्होंने भी याद दिलाया...उस को भी याद आया था 
कोई ऐसा भी आया था जीवन में
जिसने नज़रों से सहला कर 
भर डाला था जन्मों पुराने घावों को,
जी खोल कर दी थे जिसने मरहम मुस्कानों की 
मगर एक जल-जला अचानक ऐसा आया था
कि कुरेद कर चुपके से 
बना दिया था हरा सभी घावों को,
आपा धापी में चल दिया था वह शोख़ 
फिर मुँह छुपा कर...
बोलो ! चल क्यों दिए थे तुम इस तरह ?

पुकार बैठा था वह तुम को,
बुलाने लगा था दे देकर आवाजें,
चले आओ ! चले आओ !
सोच थी जेहन में : 
साथ गुजरे लम्हे....देने पाने के अनथक दौर
फिर से लौट आयेंगे..
पल दो पल के लिए ही क्यों ना..
ताकि बिछुड़ेंगे फिर से तो एक निश्छल मुस्कान के साथ,
और फिर मिलने तक
इसी मुस्कान को भग्न प्रेम की विरासत मानते हुए 
जी लेंगे हँसते हँसते,,,

करना चाहा था उसने 
तुम से ही तुम्हारी शिकायत
मगर सूख गए थे उसके शब्द सारे
सूख चला था आँखों से बहता पानी भी,
नहीं कह सकता था वह अब कुछ भी
जो भी था रह गया था बस मौन हो कर 
सुनायी दे रही थी बस : 
Sound Of Silence...ध्वनि मौन की,,,,

(२)
खड़िया से लिखी इबारतें,,,
##############
हर सुबह तुम्हारी 
शुरू होती थी 
उसके ही नाम से 
हर शाम उसकी 
गाती थी तराने 
तुम्हारे ही नाम के 
तुम थी हीर और वो रांझा था 
ज़िंदगी का पल पल ही साँझा था 
वो ही तुम्हारा हमदम हमनवाँ हमइरादा था 
हर नफ़स में दोनों का ज्यों आधा आधा था 
लगता था साथ एक दूजे के 
हर संगी बंदी और आज़ाद भी था 
दो जिस्म एक जान का ख़िताब 
तुम्हारा ही तो इजाद था,,,

तुम्हारे हर इज़हार में 
होता था कुछ ऐसा
जो शिद्दत से बताता था के
समझ लिया है तुम ने अब 
प्यार वफ़ा चाहत और ज़िंदगी को 
रूह और जिस्म को 
उस को और ख़ुद को 
रुक जाता था हर सफ़र तुम्हारा 
आकर उस तक 
कहती थी तुम बार बार :
"तुम्हीं तो मेरे सफ़र का आग़ाज़ हो 
तुम्हीं तो हो मंज़िले मक़सूद मेरी"...

वो बातें...वो मुलाक़ातें 
वो दिलकश दिनों की हक़ीक़तें 
वो ख़्वाबों से भरी महकती रातें, 
यही तो कहती थी तुम :
"नहीं है ज़रूरत मुझ को अब किसी भी और की
लौट आयी हूँ अब मैं ख़ुद की जानिब 
पहचान लिया है मैं ने अपने 'एसेन्स' को 
समझ चुकी हूँ मैं 'समर्पण'और 'निष्ठा' को,,,
हर मुश्किल तुम्हारी का हल वो था 
हर लड़खड़ाहट में सहारा तुम्हारा वो था,,,

याद आ रही है कहानी टोलस्टोय की माँ की
अतिभावुक अतिसंवेदनशील होती थी वो 
थीएटर में हर भावनात्मक दृश्य रुलाता था उसे जार जार 
बार बार पौंछने बहते हुए आंसू 
चाहिए होता था टिशू पेपर का अम्बार 
ठिठुरती ठंड में कोचवान रहता था चौक चौबंद 
मैडम को बिना एक पल गँवाए पेलेस तक लेजाने को 
ठंड की मार गर मार देती एक कारिंदे को 
तो दूसरे को होना होता था तुरत हाज़िर 
व्यथित मैडम ना जाने कब निकल आए भाव विह्वल हो कर 
रोते रोते हो जाती थी मलका साहिबा सवार बग्घी में 
जीती हुई उस जज़्बाती ड्रामा को 
बिलकुल बेपरवाह कोचवान की मौत से,,,

भावना का कुछ ऐसा ही खेल तो 
खेल लिया है तुम ने,
क्यों मिटा दिया है तुमने वो सब 
जो लिखा था अपने दिलो ज़ेहन पर 
ख़ुद तुम ही ने अपने हाथों से ?
देकर बौद्धिक तर्क और दलीलें 
पलट रही हो अपनी ही कही बातों से
क्यों पहना रही हो जामा उदारता का 
अपनी ही कमज़ोरियों को 
क्यों खड़ा कर रही हो कटघरे में 
समझी स्वीकारी वफ़ादारियों को 
उड़ा दिया है वैसे ही तो सब कुछ तुम ने 
वो कशिश वो रवानी वो मोहब्बतें 
जैसे हटा देता है डस्टर ब्लैक बोर्ड से 
खड़िया से लिखी इबारतें,,,

(३)
मौन का सम्बोधन,,,
############
मौन उसका तुम को कुछ ऐसे सम्बोधित कर रहा था :

"नहीं टिकती ना प्रेम की परत...पाली हुई कुंठाओं पर 
करते नहीं ना प्रतीक्षा...उम्र के तकाजे परिचय से प्रेम तक 
होती है दुनियावी रिश्ते की शुरुआत
शहज़ादे के परी को चूमने से 
और आख़िर में एक तुड़ा मुड़ा सा मर्द देखता है 
एक सहमी सहमी सी औरत को टेबल के उस पार, 
जिस्मानी ज़रूरियात को पूरा करने के ताल्लुक़ भी 
ढल जाते हैं जिस्म ओ जवानी ढल जाने के साथ,
रसूख़ और अनापरस्ती के रिश्ते भी 
हो जाते हैं ज़वाल को हासिल, वक़्त बदलने के बाद,
ख़ुद के खोखलेपन को भरने का सामान नहीं होता बाहिर कहीं 
पाटने होते हैं ये गड्ढे  ख़ुद की होशमंदी और वजाहत से ही 
नहीं मिलते निखलिस्तान सहरा में  बेतहाशा दौड़ने से 
मरीचिकाएँ देती है छलावा पानी होने का,,,,

"नहीं है कोई मुहिम अंजाम बता कर लौटा लाने की 
बस है फ़क़त एक 'रिमाइंडर' हल्का सा 
क्या नहीं बैठ सकते दो आज़ाद परिंदे एक ही डाल पर ?
क्या जीने के लिए ज़रूरी है यूँ सौंप देना किसी को ?
बात कर रहा हूँ अस्तित्व बोध की...जात की वुज़ूद की 
जो तुम ने सुनी थी.... तुम ने सोची थी...तुम ने स्वीकारी थी
बढ़ निकली थी तू इस अनंत यात्रा में थामे हुए हाथ मेरा 
कभी भी नहीं माँगा था मैं ने तुम को तुम से 
चाहा था तुम्हारे अस्तित्व अस्मिता और सारतत्व को
यह झीना सा अंतर याचक और प्रेमी का  
शायद समझ नहीं पायी तुम,,,

जब देखता हूँ बेमौत मरते उस कोमल अस्तित्व को
उभरा था जो संग में मेरे 
हो उठता है व्यथित रोम रोम मेरा,
हो गया था हावी इस बोध पर मोह जैसा कुछ 
जो आ चुका था एक चोर की तरह बीच तुम्हारे और मेरे 
शायद भगा देते हम मिल कर इस जाने पहचाने प्रवंचक को 
मगर बिछुड़ना भी तो एक नियति है मिलन जैसी,,,

"पीड़ा इसकी नहीं कि अकेला हूँ मैं
अकेलापन मेरा आरम्भ था, एकाकीपन मेरा अंत और निष्कर्ष है.
तुम जो खुद की पहचान खुद से करने चले थे 
निखार कर स्वयं को
लिए हुए थे चाह अपना अस्तित्व स्वयं उभारने की 
आज क्यों झुका रहे हो अपने आप को उन मूल्यों के आधीन
जो कभी नहीं स्वीकारे हैं तुम ने 
क्यों अपना रहे हो बौद्धिक चालाकियाँ 
मूल में जिनके सिवा आत्मिक विनाश के कुछ भी नहीं है 
थक गए हो तो सुस्ता लो...गुस्से में हो तो बिखर पड़ो
जान लो ख़ुद को आइने के सामने लाकर फिर से 
क्या है तुम्हारा इष्ट, श्रेय और अभीष्ट !

"शुक्रिया !
मुझे अकेलेपन का उपहार देने का,
मुझे मुझ तक लौटा लेने का ,
उन मुस्कानों का...उन फूलों का
जो तेरे मेरे दरमियाँ खिले थे,
महकना चाहा था जिनकी खुशबू से तुम ने
सच ! यह तेरी-मेरी खुशबू है,
जब जब फैलेगी हरसू 
थोड़ी सी सुगंध उसकी भी होगी जो तहे दिल तुम्हारे साथ था,
जब खिली थी पहली कली
शबनम ने जमाया था आसान प्यार से पत्तों पर
याद है ना एक दौर ऐसा भी आया था 
जब हम तुम पिघल कर एक होने चले थे,
इन सभी एहसासात और यादों का सरमाया 
बस हो जाए नींव स्वयं हमारे ही 'प्रेम'  हो जाने की !  
आमीन ! "
(४)
ब्रेक अप नोट,,,
##########
वरण उस अनूठे सन्यास का हुआ था घटित 
आवरण का मरण हो कर 
पलायन है सर्वथा अनावश्यक इस सन्यास हेतु 
स्वयं को ही बनाना होता स्वयं का सेतु 
उपस्थिति किसी दूसरे की 
हो सकती है साधन...ना कि साध्य 
क्यों लुभाए कोई किसी को, 
करे क्यों किसी को बाध्य,,,

लिखा था उसने एक संदेसा 
इस ब्रेक अप नोट में :
विदा अलविदा जुदा आदि शब्द सापेक्ष है 
इसलिए इन्हें लिखना बेमानी है...
पूर होने पर जीवन-चक्र...
हो पाए तुम्हें जब एहसास 
कि हट कर होते हैं कुछ भाव 
उम्र, समाज,वांछा, वासना, उपासना और रवाजों से
परे होते है जिस्म,अना और रुतबे की ज़रूरियात से 
'अनाक्रमण और सहस्तित्व'
'पंचशील' में प्रयुक्त शब्द मात्र नहीं
हो सकते हैं ये जीवन के यथार्थ भी
चले आना !
ना होगी ज़रूरत किसी पूर्व सूचना या दस्तक की
हूँगा मैं  खुले आकाश  के नीचे.
हम दो ही नहीं हम जैसे अनेकों होंगे
देख पाओगी शायद तुम एक बार फिर 
नृत्य ढाई आखर का
एक अस्तित्वहीन "अस्तित्व",,,

Tuesday, 8 September 2020

मौन उसका : विजया

 

मौन उसका....

+++++++

महिमामय मौन उसका 

करता है अभिशांत आत्मा को..


सौंदर्यशाली मौन उसका 

करता  है आशीर्वादित प्राण को...


प्रशांत मौन उसका 

देता है सुख व्यथित हृदयों को...


त्वरित मौन उसका 

उठाता है प्रश्न प्रच्छन्न अंतर्धेय पर...


अतिविशिष्ठ मौन उसका 

उधेड़ देता है मतिभ्रमों को...


न्यायपूर्ण मौन उसका 

करता है आकलन सभी विषयों का...


वाकपटु मौन उसका 

उड़ा देता है सभी शब्दों को...


निरंतर मौन उसका 

कर देता है समाधान सभी प्रश्नों का...


पावन मौन उसका 

कर देता है मौन अस्मिता को...


असाधारण मौन उसका 

करता है आलोकित मस्तिष्क को...


राजसी मौन उसका 

करता है प्रज्ज्वलित ज्वाला को...


दीर्घ मौन उसका 

करता है विलंबित रात्रि-अवसान को...


रहस्यपूर्ण  मौन उसका 

बनाता है रहस्यदर्शी आभामंडल  को...


अनिवार्य मौन उसका 

करता है निष्फल समस्त संशयों को...


उत्कृष्ट मौन उसका 

पिछाड देता है हस्तक्षेप को...


शांतिमय मौन उसका 

है पूर्ववर्ती समस्त विजयों से...


शाही मौन उसका 

करता है सबल निर्बल को...


आकस्मिक मौन उसका 

करता है विस्मित अभिमान को...


अनुभूत्य मौन उसका 

करता है स्पर्श संधान का...


मूक मौन उसका 

करता है मिलन आतुर उतावले से...


शानदार मौन उसका 

धो डालता है सभी डरों को...


'लेज़र' सा मौन उसका 

कर देता है उपचार अँत:करण का...


उत्साहपूर्ण मौन उसका 

कर देता है 'ज़ूम' सम्पन्नता को...

Monday, 7 September 2020

अना ओ बदगुमानी की मिट्टी से : विजया


अना ओ बदगुमानी की मिट्टी से...

+++++++++++++++++

(1)

नहीं डिगे थे तुम 

सुनकर भी किसी कमजर्फ़ का कहा :

ओ अदीब !

लफ़्ज़ जो तुम बिखेरते हो सफ़ों पर 

नहीं जगा पाते

कुछ भी तो मुझ में,

कुछ भी तो नहीं होता उनमें 

जिससे अनजान थी मैं पहले से ही 

कुछ भी तो नहीं ऐसा उनमें 

जो मैं ख़ुद नहीं कह पाती थी

जैसे कि झील में चाँद का अक्स 

जैसे कि चाँद का रातों में 

खाड़ी के ऊपर झूलना 

और जहाज़ों का आना और जाना....

(2)

नहीं हुई थी कोफ़्त तुम्हें

सुनकर भी किसी ख़ुदगर्ज़ का कहा:

ऐ घुड़सवार !

दम नहीं है तुम्हारे घोड़े में 

मुझे ले चलने का उस जगह 

जहाँ कभी नहीं जा पायी मैं 

नहीं खोज पाते ना तुम वह मक़ाम 

जो पड़ा है अलग थलग सा 

मेरे ज़ेहन में उमड़ते बवंडर के बीच,

कैसे पहुँचा सकेंगे वहाँ तक 

तुम्हारे ये रुके रुके से हाथ,

देखो मैं तो अब उस दूर के तारे को ही 

देख सकती हूँ  बस अपने ख़्वाब में...

(3)

नहीं हुए थे तुम मायूस 

जब कह दिया था किसी मगरूर ने 

ऐ शायर !

मेरा नस्र ख़ुद में एक कायनात है 

जो बजाहिर है मुझ से होकर,

एक नाक़ाबिले बयां जुबान की आवाज़ है 

मेरे अल्फ़ाज़ 

जिसके होने का इल्म तक नहीं था तुम को

यहाँ तक कि सुनने के बाद भी 

नहीं कर पाते हो तसव्वुर तुम जिसका...

(4)

इसीलिए तो 

मैं सोच भी नहीं सकती

तुम्हें ख़फ़ा करने की 

क्यों कि जानती हूँ मैं

तुम मैं है अकूत लियाक़त और क़ुव्वत

ख़ूबसूरती को देख पाने की 

मुससल कुछ सीखने की ख़ातिर अपनाने की

सच और झूठ में फ़र्क़ समझ पाने की 

खामोशी से गवाह होकर देख पाने की 

तहे दिल से साथ निभाने की 

देख कर भी बहुत कुछ अनदेखा कर देने की 

किया है महसूस मैं ने 

तुम्हारे सब्र ओ वफ़ा को 

कर पाते हो मुआफ़ तुम 

गलती को ही नहीं गुनाह को भी 

माँग सकते हो तुम मुआफ़ी 

खुदा से ही नहीं बंदों से भी 

इसीलिए तो नहीं बना पाई हैं मैं कच्चे घड़े 

अपनी अना ओ बदगुमानी की मिट्टी से...


(मायने :कमजर्फ़=अयोग्य, अदीब=लेखक, ख़ुदगर्ज़=स्वार्थी,मगरूर=घमंडी, नस्र=गद्य, कायनात=ब्रह्मांड, बजाहिर=प्रत्यक्ष, नाक़ाबिले बयां=अकथनीय)

आख़िर मैं कौन,,,,


आख़िर मैं कौन,,,

#########

होने के लिए साधना 

होता है कसना मौन को 

क्रिया और प्रतिक्रिया की 

कसौटी पर

हो जाता है मौन कभी 

एक ख़ुदगर्ज़ दावा 

भागते भूत की लंगौटी पर,,,


होता है घटित मौन

अंतरंग की चेतना संग

तो बन जाता है साधना 

कभी कर्म, 

कभी ज्ञान, 

कभी आराधना,,,


यदि है चुप्पी 

प्रतिक्रिया जनित 

हृदयस्थल में आड़ोलन संग 

तो मौन है पलायन 

वास्तविकता से 

भटकाना सच को

मस्तिष्क में विड़ोलन संग,,,


मौन में भी 

सुनाई देता है शोर 

कानाफूसियों में 

बतियाता रहता है 

मन का चोर,,,


शब्दों के बीच भी 

गूंजता है मौन 

इसी रहस्य की तलाश में 

होता है निहित 

यह प्रश्न 

"आख़िर मैं कौन ?"

ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से,,,,: विजया


ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से 

इसलिए नहीं कि 

तुम ने कभी कुछ ग़लत किया 

इसलिए कि 

तुम मुझे सच में एहसास देते हो 

अपने प्यार का...


ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से 

इसलिए कि

तुम सुनते हो मेरी हर  बात को 

इसलिए कि

देते हो तवज्जो मेरी हरेक जुंबिश को...


ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से 

इसलिए कि 

रखते हो ख़याल 

मेरे ऊबड़ खाबड़ मिजाज का 

जब जब होती हूँ मैं किसी कठिन दौर में

और जब जब मैं चाहती हूँ 

बतियाना तुम से 

दिल खोलकर...


ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से 

इसलिए कि 

थाम लेते हो मुझे तुम 

जब जब होती है मुझे चाहना 

थामे जाने की...


ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से 

क्योंकि 

मैं ख़फ़ा हुआ करती हूँ ख़ुद से ही 

तुम्हें मुझ से शिद्दत से 

प्यार करने देने के लिए 

तुम्हें ख़ुद में समा लेने का 

मौक़ा देने के लिए...


ख़फ़ा होती हूँ मैं तुम से 

क्योंकि 

नफ़रत है मुझे कुछ भी खो देने से 

क्योंकि 

हासिल है मुझे इतने गहरे एहसास तुम से

क्योंकि डर है मुझे 

कहीं अपने अख़्तियार को खो ना दूँ ...


ख़फ़ा होती मैं हूँ तुम से 

इसलिए कि 

तुम कर देते हो 

मेरे लिये नामुमकिन 

कि हो सकूँ मैं 

ख़फ़ा तुम से कोई भी वजह से...

Sunday, 30 August 2020

अलिफ,,,,



अलिफ,,,

####

काग़ज़ पे लिखा अलिफ,अल्लाह से मिला दिया 

दीवाना हुआ था मैं और ख़ुद को गला दिया,,,


जीने को वफ़ादारी मैं ने क्या क्या भूला दिया 

ख़ुद को ख़ुद से जला कर दीपक जला दिया,,,


जुनूने इश्क़ में जाने क्या क्या गँवाया मैं ने 

हुआ दर बदर आख़िर,घर अपना जला दिया,,,


मैय्यत पे आए मेरी वो सोलहों सिंगार कर 

चाहत ए रक़ीब में,यह कैसा सिला दिया,,,


मासूमियत उनकी का आलम ज़रा देखो 

छुकर बर्गे गुल से ज़ख्मों को सला दिया,,,


कहते हैं बेवफ़ा हुए परस्तिश में मेरी को 

अनगिनत नाम दे दिए, बुत भी ढला दिया,,,


लिपटा कर उसने नफ़्स को गिलाफे इश्क़ में 

आँखों में झूठे प्यार का सपना पला दिया,,,


साजे शिकस्ता से हुई उम्मीद-ए-सदा मेरी 

चाहा अंदोह रुबा नग्मा, के पाँवों चला दिया,,,


ज़वाले हस्ती की वुसअत ना पूछो वही बेहतर

रुजू ए क़ल्ब ने फिर से क्या क्या टला दिया,,,


उस शोख़ की नज़रें, मरहम का यक फाहा थी 

देकर सुकूँ रूह का, चोटों को सहला दिया,,,


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मायने :

मैयत=लाश, सला=बुलावा, call, परस्तिश=पूजा, बर्गे गुल=फूल की पंखुड़ियाँ,बुत=मूर्ति, नफ़्स=काम वासना, गिलाफ = आवरण, खोल,साज=वाद्य, शिकस्ता=भग्न,जीर्ण, सदा=पुकार, अंदोह=दुःख, क्लेश  रुबा=ले भागने वाला,  ज़वाल=पतन, हस्ती=अस्तित्व, जीवन, वुसअत=विस्तार, दर बदर =बेघर, अलिफ=अरबी और उर्दू वर्णमाला का पहला अक्षर जिदक 'अ' जैसा उच्चारण होता है,रुजू ए क़ल्ब=हृदय के आकर्षण

फ़ना,,,



ओंस की 

इस बूँद को ज़रा देखो 

सजी है धज से 

दीवाने से इस फूल पर, 

बड़ी ग़ज़ब वह बूँद थी 

जो हो गयी फ़ना 

ज़मीनी धूल पर,,,

Saturday, 22 August 2020

सावन की सुरंगी बहार,,,



सावन की सुरंगी बहार,,,

############

आई सावन की सुरंगी बहार 

पपीहा बोले वाणी रसदार 

अपने ही बस में मैं नहीं आज

मस्त है तीज का त्योहार 

करूँ मैं चिरौरी मनुहार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


काश होती मैं तौ संग सजना 

घर में आज तिहरे 

किंतु जाना परै आज मोहे 

माइके अकेरे अकेरे 

कंटक सम है सूनी सेजवा

विनती करूँ मैं बारम्बार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


वादे तोहार झूठे हैं बिल्कुल

ज्यों पानी पे खिंची लकीर 

देखो हार गया है दुशासन 

ज़िद्दी और बलबीर

घड़ी जुदाई की हो गयी 

जैसे द्रोपदी का चीरवा 

करूँ मैं चिरौरी मनुहार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


आया उमड़ घुमड़ रे बालम 

जोबन तेज ज्वार 

मोल नहीं पानी के जैसे 

बह गया मुआ थक हार 

छलनी जैसा बिंधा करेजवा

बिनती करूँ मैं बारम्बार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


ओ नासमझ नादान रे माली 

सींच ना तू  फुलवारी को 

प्यासी कैसे खिले रे कोंपल 

समझो मेरी दुश्वारी को 

जंगल झाड़ उग आए खर पतरवा

करूँ मैं चिरौरी मनुहार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


बागों में पका अंगूर 

बुलाए दाख.. तू भोग कर ले 

कौवे को लगा कंठ-रोग 

बोलो तो कोई क्या कर ले 

पक पक गिरते सगरे फलवा

बिनती करूँ मैं बारम्बार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


समुदर गहरा हो या फिर

कोई बहती सी नादिया हो 

करूँ छिछले पानी कर्म भोग 

जैसे कोई मीन दुखिया हो 

नहीं मिलता कोई किनरवा

करूँ मैं चिरौरी मनुहार 

सजना मोरे आन मिलो ना,,,


बेताब हुई तेरी यादों में 

पहना मैंने हार शूलों का 

देखो मैंने अपने हाथों में

रचाया रंग पीर फूलों का 

आ लगा ले मुझको गरवा

बिनती करूँ मैं बारम्बार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


उठी मेरे हिये हूक 

गयी जो कल बगिया में 

नाचे मोर रिझाने मोरनी 

बरसी आँखें बिरहन रतियाँ में

चोरनी सी छुपाऊँ बलमवा

आई हिचकी मौहे बेशुमार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना,,,


कल देखा मैं ने, मेरे जोड़ीदार !

सहेली संग प्रीतम झूले 

चुभने लगी काँटों जैसी सैज 

नींद कैसे आए अकेले 

कड़के बिजुरी गरजे बदरवा 

लेती रही करवट मैं लगातार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना...


घुड़सवार ! 

क्यों कसे ना अपना जीन 

मुझ बाँकी बछेरी पर 

ले हिलोरे तन मन झूलाय

चला आ ना मेरी देहरी पर 

गाऊँ कजरी बुलाऊँ मितवा 

दुआर मेरे सजी रे बंदरबार 

सजना मोरे ! आन मिलो ना...


भेजे तू नए साज सिंगार 

माह दर रोकड़ें हज़ार 

जागे बिन साजन जोबन के दोष 

बात को समझ हुशियार

लकड़ी गीली सघन है जंगलवा 

फिर भी जलूँ जैसे अगन अम्बार 

सजना मोरे आन मिलो ना..



Thursday, 6 August 2020

प्रतीति : विजया


प्रतीति....

+++++

हो गयी थी मैं आदी 

अनावृत देह पर हो रही 

ठंडी धातु के स्पर्श की अनुभूति की,

आदी उस थोपे हुए पल की 

जिसमें नहीं उभर पाते थे 

कोई भी स्पंदन

मेरी कोमल मृदुल त्वचा पर, 

आता था प्रबल ज्वार 

जब जब रक्तिम सरिता में 

रंग देता था वह 

किसी समय के श्वेत रहे केनवास को 

आवेगों के विप्लाव जैसा,

मेरे कपोलों पर भटके भटके आंसू 

रचते थे मंज़र सावन भादो का,

शोकाकुल आँगन का दृष्टांत बनी 

अटकी अटकी सी हुआ करती थी 

मेरे रुँधे गले में घुटती सी सिसकियाँ,

ले ली थी दर्द और उदासी ने 

जगह सुन्नता की,

आदी हो गयी थी मैं

अधूरेपन को बताती हुई 

लाल धारियों और चकतों की 

जो करते थे अनुसरण 

उस वहशी भावहीन हरकत का...


मेरी अपनी उँगलियाँ ही

फिरने लगी थी चुम्बक की तरह 

खोजते हुए अधभरे घावों को 

तलाशते हुए हल्के पड़े खरोंचों के निशानों को,

सहलाया था उन शिलालेखों को मैं ने 

अपने समस्त प्यार से 

करते हुए महसूस 

मेरी त्वचा के बाहर और अंदर की कोमल बुनायी को,

चकित थी मैं पा कर 

कुशल हूँ मैं स्वयं के उपचार के लिए 

सबल हूँ मैं अपने घावों को बारम्बार भरने के लिए,

हो गयी थी प्रतीति मुझको

पूर्ण समर्थ हूँ मैं सब कुछ के लिए 

देख समझ ली थी मैं ने सबलता 

अपनी आरोपित निर्बलता में...


(अपनी एक सहेली की feelings को शब्द देने का अधूरा सा प्रयास)

Tuesday, 7 July 2020

गिले तुम्हारे धरे रह गए,,,


गिले तुम्हारे धरे रह गए,,,
############
गिले तग़ाफ़ुल के तुम्हारे धरे रह गए
बूटे गुलशन के हमारे यूँ हरे रह गए,,,

बेनियाजी है अदा, बेवफ़ाई तो नहीं
बदगुमानी में वो हमसे डरे रह गए,,,

नाउम्मीद कासिद लौटा है सरेसाँझ
ख़ुतूत कू ए यार में बिखरे रह गए,,,

ज़ाहिद की तक़रीरें तहरीरें थी फ़क़त
घूँट सागर के लबों पर खरे रह गए,,,

कश्ती ओ बादबाँ नदारद थे लिल्लाह
क़िस्मत में अपनी ,वीरां जज़ीरे रह गए,,,

*************
तग़ाफ़ुल=उपेक्षा, गिले=शिकायतें, बेनियाजी=उदासीनता/निस्पृहता, बदगुमानी=ग़लतफ़हमी, कासिद=संदेशवाहक, खुतूत=पत्र, कू-ए-यार=प्रेमी/प्रेमिका की गली, बादबां=पाल (जहाज़ का) नदारद=ग़ायब, वीरां/वीरान=निर्जन/सूने, ज़ज़ीरे=टापू
लिल्लाह=ईश्वर के लिए/for God's sake.

Monday, 6 July 2020

बैठे रहे चौखट पर : विजया


बैठे रहे चौखट पर...
++++++++++
संगे मरमर के मुजस्समे को
खुदा मोहब्बत का
हमने बना डाला
उस बेजान बेहिस से क्यों
इजहारे इश्क़
हमने कर डाला...

मर्द तो है दरवाज़ा यक महज़
रोक  देता है बाहिर जाने से
टोक देता है भीतर आने से
बैठे रहे चौखट पर
जिसे हमने चूम डाला...

कहते हैं वो बस एक बेल तुम हो
दीवाल मैं हूँ सहारा हूँ तेरा
ख़ूबसूरत बना उसे ढक कर
सौदा इस वुज़ूद का
हमने जो कर डाला...

फ़र्क़ जात ओ वुज़ुद का समझने में
देर बहोत हो चुकी थी शायद
माँगते रहे यक इन्सां से मुससल
अल्लाह को ना जाने क्यों
हमने भूल डाला....

***************************
1. Meanings :

मुजस्समा=मूरत, पुतला.
बेजान=निर्जीव, बेहिस=संवेदन शून्य
जात=स्व,  वुजूद=देह
*****************************

Explantory Note : जात और वुज़ूद दोनों को ही अस्तित्व कह देते हैं मगर इस्लामी दर्शन में  इनके मायनो में बारीक फ़र्क़ किया जाता है जात का ताल्लुक़ अल्लाह से और वुज़ुद का इंसान से.

ऐसा समझा जाता है. ज़ात पहचान है आपकी जो आप दुनिया में लेकर आते हैं अपने साथ माँ की कोख से और वुज़ूद दुनियावी है जो एक दिन दफ़न हो जाना है मिट्टी में.

वुज़ूद का काम माँगना है..वुज़ूद भिखारी है जब की ज़ात सिर्फ़ देती है..जात भिखारी नहीं हो सकती.

मोटे तौर पर आत्मा और देह से समझ सकते हैं ज़ात और वुज़ुद को.

(दर्शन सम्बन्धी निर्वचन/विवेचन में साहेब याने Vinod Singhi ने मदद दी है, शुक्रिया उनका.😂)

Sunday, 21 June 2020

पिघल जाएँ : विजया



पिघल जाएँ...
++++++
तो
कुछ ऐसा हो गया ना
आज
चाँद ने ढाँप लिया
सूरज को
और मावस की रात हो गयी
दिन में,
नहीं रहना है हमें
तुम और मैं,
भूल कर अपना वजूद
आ जाओ ना
पिघल जाएँ हम
संग संग
पिघल जाती है जैसे परछाईयां
घने अंधेरे में,
फिर बहते हुए जा पहुँचे हम
उस जहाँ को
जो है
सितारों से आगे....

Thursday, 18 June 2020

ख़ूबसूरती हमारी उम्र की,,,


ख़ूबसूरती हमारी उम्र की,,,,
#############

बढ़ती है जैसे जैसे
उम्र हमारी,
होती है नुमाया
ख़ूबसूरती इक नई
हमारी जंग और मोरचे की कहानी से,
होती है आश्कार
बालीदगी हमारी
बाहिर के निशानों और टूटन से,,,

मानिंद हैं एक आर्ट पीस के हम
बेशकीमती और अद्भुत,
नहीं है अब हम
मासूम ओ नादान
दुनिया को जानने और समझने में,
बढ़ रहा है मोल हमारा
हर सबक़ के साथ जो
सिखाते हैं लोग हम को,,,

नहीं पाया हमने
हिसाब नौजवानी का
उम्र की रियाज़ी में,
बसता है जमाल बखूबी
देखने वाली नज़र में,
होती है जवानी
एक तर्ज़ दिलो ज़ेहन की,
हुआ नहीं कोई बदलाव
एहसासों के महसूस होने में,,,

कुछ भी कहिए
आ गया है वक़्त अब
करने का अपने मन का
जो भी हो मुनासिब,
जीने का अपनी शर्तों पर
हो कर बेपरवाह
क्या कहेगा कोई,,,

नहीं हैं अब
जकड़ने की कोशिशें
रेत को अपनी मुट्ठी में,
जो रहे क़ायम
एहतिराम उनका
जो फिसल फिसल जाए
अलविदा उनको
नैक ख़्वाहिशात के साथ,,,

(नुमाया=स्पष्ट/obvious, आश्कार=स्पष्ट/visible, बालीदगी=विकास/growth, मुनासिब =उचित,रियाज़ी=गणित,जमाल=सौंदर्य,
तर्ज़=शैली/ढंग,एहतिराम=सम्मान, नैक ख़्वाहिशात=शुभकामनाएँ)

Friday, 12 June 2020

सार्थक यात्रा,,,,


सार्थक यात्रा,,,
#######
सीखा है गिर गिर के
चलना और दौड़ना मैं ने
चोटें खा कर जाना है
सम्भलना मैं ने
अस्तित्व की यात्रा में
घाट घाट का पानी
पीया है मैं ने,
सफल हुआ या असफल
पैमाने ये सापेक्ष दुनिया के
बचकर विवादों से
जाना अजाना
समझ लिया मैं ने,,,

नहीं है क्षुद्र झगड़े अब
मेरे जीवन का एक हिस्सा
प्रलाप होता जो मेरे ख़ातिर
करुं नज़रंदाज़ हर किस्सा
मात पिता स्वजनों से
छोड़ दिया लड़ना मै ने,
नहीं करता संघर्ष अब मैं
लिए लालसा औरों के ध्यान की ,
स्वअधिकारों हेतु नहीं भीड़ता
भीड़ से आग्रह और अज्ञान की
छोड़ दी जद्दोजेहद मैं ने
औरों की अपेक्षा पूर्ण करने की,,,

नहीं करता मैं उठापटक
ख़ुश औरों को रखने की
नहीं करता हूँ क़वायद
पूर्वाग्रह औरों के साबित करने की
सच कहूं दिया है त्याग
बेमानी युद्ध लड़ना मैंने,
बच सकूँ मैं ताकि
वृथा ऊर्जा क्षय करने से
जुट सकूँ ताकि
सार्थक यात्रा देह-दिल-आत्मा से,
मक़ाम हो जिसके
मेरी दृष्टि और मेरे स्वप्न
मेरा चिंतन और मेरा प्रारब्ध
भाव मेरों को मिल पाए
क्या आज यथोचित शब्द ???

पुरुष प्रधानता का पोषण...: विजया



पुरुष प्रधानता का पोषण...
++++++++++++++
क्यों पूछे स्त्री किसी और से
अपने घर का पता
क्या पुरुष भी जानता है
ख़ुद अपने घर का पता ??

एक सा ही होता है एकांत
स्त्री का भी
पुरुष का भी
अपने अपने 'एक' का अंत कर
द्वि एक हो जाते हैं जब
मिट जाती है सारी तलाश
किसी भी पते ठिकाने की...

गवाह है परम्पराएँ पुराण और इतिहास
पहचाना है स्त्री ने सदैव
स्वत: ही अपनी धरा को
समझ पाती है
ज़मीनी हक़ीक़त को वह जितना
समझ पाता है कहाँ कोई पुरुष उतना...

भिन्न है वास्तविक जीवन
कविताओं में प्रयुक्त रूपकों से
देहरी के उस पार और इस पार भी
जीवन ही तो है
स्थापना और निर्वासन
अति भारी अभिव्यक्तियाँ है स्थितियों की
ठहराव और बहाव का सम्मिलित रुप
जीवन ही तो है...

असम्भव है जी पाना पूर्णतः सम्बन्धों को
दे पाते हैं स्वप्न हमारे
एहसास मात्र किसी छद्म पूर्णता का,
आकांक्षायें स्वामित्व की
अपेक्षायें परिभाषित परिपूर्णता की
हेतु है व्याकुलता की,
हो जाते हैं ग्रसित
तीव्र आकुलता से दोनो ही....

गाँठे जहाँ भी हो
करती है उपद्रव निरंतर
नहीं प्रदत है प्रभु से ये
मानव निर्मित है जाने या अनजाने,
काश समझ पाए नर नारी
कर सकता है मुक्त तन मन को
निस्तार इन जटिल ग्रंथियों का...

व्यवहार के संवहन
होते हैं द्विपक्षीय,
होती है शब्दातीत
भाषा स्पंदनों की,
यदि हो
सामर्थ्य आपसी जुड़ाव में
गरिमामय लचीलापन व्यक्तित्वों में
गहनता कृतित्व में,
नहीं रुक पाती है
दीर्घ प्रतीक्षाएँ
सुदीप्त मुख मंडलों पर...

बिना दिनों के अवदान के
वृतुल सृजन एवं वर्धन का
कब हो पाता है पूरा,
बनाया है प्रकृति ने मानव को
रहने को मुक्त भौतिक जड़ से,
जन्म पर करना होता है ना
तभी तो पृथक नाल को...

क्यों बांधा जाय स्त्री पुरुष को
परिभाषाओं और व्याकरण के नियमों में,
दो और दो नहीं होते हैं चार सर्वदा
रिश्तों के अंक गणित में,
नहीं है भूगोल देह स्त्री की
नहीं कर पाता महसूस
निहित प्राण और विविधताओं को कोई यदि
तो दुर्भाग्य है उसका,
जीवन के जैविकी और मनोविज्ञान में
उपलब्ध है उत्तर बिना प्रश्नों के
क्यों बिछाया जाय तब
जाल बौद्धिक जिज्ञासाओं का...

जानने से अधिक महत्वपूर्ण है
अनुभूति सहस्तित्व,
सहनिर्भरता, सहसम्मान की,
बदली परिस्थितियों में
पुरुष प्रधानता के प्रति
वही पुरानी शाब्दिक शिकायतें
दर्शाती है मात्र स्त्री का लाचार सा विद्रोह
करते हुए पुन: पुन: पोषण पुरुष प्रधानता का...

Thursday, 11 June 2020

चाहती हूँ मैं स्वयं होना....:विजया



चाहती हूँ मैं स्वयं होना...
++++++++++++
देखा था मैं ने प्रभाव तूफ़ान का
हिल गया था पेड़
कट गयी थी शाख़
सूख गए थे पत्ते
लहलहाने लगा था किंतु फिर से
जड़ से जो नहीं उखड़ा था...
अस्तित्व तो जड़ में है
व्यक्तित्व भी जड़ से हैं
पत्ते और फूल परिणाम है उसके
मात्र दर्शाव है उसके...

मूलतः होते हैं कुछ अन्य
या बना दिए जाते हैं कुछ अन्य
हम सब
और लग जाते हैं जीवनप्रयन्त
अन्य हो कर ही जीने में
चाहती हूँ इसीलिए मैं 'स्वयं' होना
जो समाहित है मेरे सत्व में
जो विद्यमान है मेरे मूल में...

नहीं चाहती कभी भी मैं
विवश होकर
किसी दूसरे के दर्पण का बिम्ब होना
ना होना निश्चितता किसी गणितज्ञ की
ना होना किसी दार्शनिक का संशय
ना होना किसी कवि की कपोल कल्पना
ना होना ऐसा मित्र जो साथ ना दे सके...

चाहती हूँ मैं
होना जो भी मैं हूँ
करते रहना जो भी मैं करना चाहूँ
चाहती हूँ मैं
अपने सही ग़लत, झूठ सच, भले बुरे की
गुत्थियों को स्वयं ही सुलझाना
बिना किसी बाहरी सहायता के...

मैं तो हूँ
एक निराला ओला तूफ़ान का,
एक कारीगर
जो टूटे को जोड़ता है
एक आलिंगक
जो गले लगाता है स्नेहपिपासुओं को
एक उदार शालीन मानवी
जो द्वार खुला रखे अपना हर पल
एक प्रयासक
जो सक्रिय हो कुछ ना कुछ करते रहने में...

आशान्वित हूँ सदा
अच्छी सम्भावनाओं के लिए
लोगों में..घटनाओं में...लेने और देने में,
रचनात्मक हूँ
जिसे गहन प्रेम है सृजन से,
विश्वासी हूँ
नहीं है आध्यत्म में
धर्मांधता,कर्मकांड और रूढ़ियाँ
नहीं है जीवन में
कोई भी स्थानापन्न सहजता का,
चाहती हूँ  मैं 'स्वयं' होना
जो समाहित है मेरे सत्व में
जो विद्यमान है मेरे मूल में....

Tuesday, 2 June 2020

दर्पण और झरोखा,,,,

दर्पण और झरोखा,,,,
########
चन्द बातें दर्पण की :
************
मिथक ही तो है
कि नहीं बोलता है
झूठ दर्पण,
भ्रम ही तो है कि
जो है उसे वैसा ही
दिखा देता है दर्पण,,,,,

बिम्ब प्रतिबिम्ब
प्रकाश अंधकार
रेखा और कोण का
खेल खेलते खेलते भी
निरीह ही कहलाता है दर्पण,,,,

अवतल उत्तल समतल
कई रूप लिए
बदल कर रूप हमारा भी
दिखा देता है दर्पण,,,,,,

संस्कारो और अनुकूलन का
सरमाया लिए
न जाने क्या क्या लीलाएं
रचा डालता है दर्पण,,,,,

भ्रमित सशंकित आलोचक
मताग्रही सैद्धांतिक हो कर
न्याय या समाधान कुछ भी
नहीं कर पाता है दर्पण,,,,,

बात झरोखे की :
**********
दिखता है झरोखे से
जस का तस
बिना किसी माध्यम के
बिना किसी अनुकूलन के
जो जैसा है वैसा ही
स्पष्ट दृष्टि से,,,,,,,

चंद बातें आगे की :
*************
बुनियादी है भेद
दर्पण और झरोखे का
एक में है पक्षपात
दूजे में आज़ाद नज़र
चुनाव करना है हमें
औरों के लिए नहीं
बस अपने स्वयं के लिए,,,,,

आच्छादित है सभी आत्माएं
अपने अपने कर्मों संस्कारों से
जकड़ी हुई हैं वे
जन्मों से संजोये
ऋण बंधनों से,,,,,

बहिरंग से अंतरंग की यात्रा
हुआ करती है
अपनी अपनी,
होते हैं अनगिनत पड़ाव भी
अपने अपने,
बदल सकता है मानव
केवल मात्र स्वयं को,,,,

तो क्या किया जाय :
**************
क्यों न झाँके और देखें हम
झरोखे से जस का तस
मुक्त रह कर
अपने दर्पण से
उतार दें रंगीन चश्में
देखें हर होनी अनहोनी को
बन कर साक्षी
बिना किसी निर्णयात्मकता@से,,,,

क्यों ना देख पायें हम
होकर परे
तल और आग्रह के प्रभाव से
मेरे और तेरे के भाव विभाव से
दर्पण से नहीं
झरोखे से,,,,,,

@judgmental approach


Monday, 11 May 2020

संयोग या प्रारब्ध : विजया


संयोग या प्रारब्ध...
+++++++++
अपने पूर्वग्रहों
निर्बलताओं
अहंकार
एवं आडम्बरों को
लपेट कर आड़े तिरछे शब्दों में
दे डाला था नाम तुम ने
संयोगों का...

कतराये तलाशने में तुम
कार्य और कारण का सटीक सम्बंध
क्योंकि निष्कपट गवेषणा
कर देती ना तुम्हें नितांत नग्न
देह से कहीं अधिक आत्मा से,
कैसे कर पाते साहस ?
तुम जो रहे थे सदा से ही
झूठ की  कुधातु से मूर्तियाँ गढ़ने वाले
ताश के पत्तों का महल बनाने वाले...

बिखरी बिखरी सी
आकस्मिक घटनाओं के बीच
बिंदुओं को जोड़ कर
देख पाती थी मैं स्पष्ट संदेश
तर्कयुक्त मस्तिष्क से पार जाकर,
सुन लेती थी मैं
फुसफुसाते हुए बोल रहे
उन सूक्ष्म बिंदुओं के अतिसूक्ष्म हृदयों को
पकड़ पाती थी मैं
अस्तित्व के साथ 'ट्यूनिंग'से
अचेतन में साँझा होती
'फ़्रिकवेन्सियों' को
विगत के काल और दूरी से पार होकर
देख लेती थी मैं
क्रमशः संकालन होती प्रेम धूलि को,
पूछती रहती थी मैं स्वयं से
आख़िर क्या हैं ये सब नाते ?
संयोग,प्रारब्ध,विधि के विधान या कुछ और,
और मेरा भी हृदय होले से कह ही देता था
'प्रारब्ध' किंतु तुम्हारा,
शायद बला टली समझ कर
हो जाते हो संतुष्ट तुम भी....

Notes:

1. ट्यूनिंग के लिए समस्वरण और फ़्रिकवेन्सियों के लिए आवृत्ति की जगह अंग्रेज़ी मूल के शब्द ही लिए हैं....sychronise के लिए प्रयोग स्वरूप संकालन शब्द का उपयोग किया है किंतु अभी भी लगता है की 'सिंक्रोनाइज' शायद बेहतर होता.
2. तुम और तुम्हारा gender neutral के रूप में प्रयोग हुआ है...'साहेब'को कम से कम सम्बोधित नहीं है 😂😂😂.

वो और मैं,,,,,


वो और मैं,,,
######
वो : खो कर तुम्हें 
      दिख रहा हूँ बुझा बुझा सा 
      सुलग रहा है अलाव भीतर मेरे,,,
मैं :  गँवा कर तुम्हें 
      मिट गयी है तपिश तन मन की,
      ताज़गी ओ तरावट है 
      अब मेरे दिलो रूह में,,,
         
वो :  तुम्हें खो देना, 
       जैसे भर गया हो दर्द सारा 
       ज़िंदगी की कच्ची सुराही में,,,
मैं :  गँवा कर तुम्हें 
       हुआ एहसास
       बह रहा है प्यार ही प्यार हरसू,,,

वो :  तुम्हें खोने में 
       डरा रहा है आसमाँ घनघोर काला 
       हो रही है बारिश भी मुससल 
       संग बिजली की कड़क के,,,
मैं :   तुम्हें गँवाया तो जाना 
       बताया है कोई नया फ़र्ज़ 
      अत्ता करने को परवरदीगार ने,
      और  छू रही है बारिश की सुखद बूँदें 
      मेरे तपते बदन को,,,,
      
वो :  तुम्हें खो देना 
       करा रहा है महसूस 
       जैसे खोखली हो 
       कायनात सारी,,,,
मैं :  गँवा कर तुम को 
      भरने लग गया हूँ मैं 
      अपने भीतर के 
      अनगिनत छेदों को,,,

वो :   तुम्हें खोना 
       लगता है ज्यों 
       टूट जाना टाँकों का 
       सीवन पर,,,
मैं :   गँवा कर तुम्हें 
       लगता है ज्यों 
       सजा रहा हूँ ज़िंदगी 
       टाँक कर 
       एक नए मक़सद को,,,
     
वो :  तुम्हें खोना 
       जैसे हो चीख 
       किसी ठुकराए हुए बच्चे की
       ढूँढ रहा हो ज्यों 
       कुछ अनजाना अनसमझा,,,
मैं :  गँवाना तुम्हें लगता है 
      जैसे दे रही हो सदा
      मंज़िले मक़सूद 
      बुलाने को जानिब खुद के,,,

तुम :   तुम्हें खोना 
         लगता है जैसे मेरी उँगलियों में 
         हो रही हो 
         नींव चूर चूर,,,
मैं :    तुम्हें गँवाना 
        महसूस करा रहा है मुझे, 
        बनाना है मुझे फिर से 
        ख़ुद को,,,

वो :  खो देना तुम्हें 
       कर रहा है ज़ाहिर रोष 
       मेरे अपने होने के मर्म से,,, 
मैं :   गँवा कर तुम्हें 
        हो गया है बामक़सद 
       मेरा हर काम और अमल
       अमन चैनो सुकूँ के साथ,,,

वो :  खोकर तुम्हें 
      आ रहा है मेरे दिलो ज़ेहन में 
      तोड़ डालूँ हर उस चीज़ को 
      जिसे समझा था पाक मैं ने,,,
मैं :  तुम्हें गँवाने से 
      समझ पाया मैं 
      कि कैसे होती है परस्तिश
      हर मुक़द्दस की
      ज़िंदगी में,,,

वो :  तुम्हें खोना 
       ऐसा लगता है 
       जैसे हो आया है क़हत कोई
       और बेहाल है हर कोई 
       भूख से,,,
मैं :  तुम्हें गँवाना 
      जैसे 
      बोया था एक बीज मैं ने 
     उपजाने को फसल 
     पूरे आलम की ख़ातिर,,,

वो :  तुम्हें खो कर 
      लगता है जैसे 
      हो गयी हो एक जंग 
      मानो यह ज़िंदगी,,,
मैं :  तुम्हें गँवा देना 
      बना रहा है मुझको 
      एक नया मुजाहिद
      जीतने को जंगे जिंदगानी,,,

वो :  खो देना तुम को 
       है मेरी मौत जैसा 
       न लौट के आने के लिए,,,
मैं :  गँवा देने ने तुम को 
      खोल दिए हैं नए दरवाज़े 
      मेरी ज़िंदगी में 
      लगता है मुझे हो गयी है ज़िंदगी 
      और ज़्यादा मानी खेज़,,,

(क़हत=दुर्भिक्ष, मुजाहिद=योद्धा, आलम/कायनात=ब्रह्मांड, मुकद्दस=पवित्र, मानी खेज़=सार्थक, परश्तिस =पूजा, मंज़िले मक़सूद=अंतिम उदेश्य/गंतव्य)

Wednesday, 29 April 2020

ज़हर,,,,



ज़हर,,,,
######
धुल जाते हैं रंग ज़िंदगी के
दिलोज़ेहन के झंझावतों और तअस्सुबात की बारिश  में,
छूट जाता है फीका मटमैला सा पानी
बहने लगता है जो मुझ में ही
मेरी कच्ची माटी की पगडंडियों के बीचो बीच
कोलतार की तरह काला चिपचिपा सा कुछ,,,

यह ज़हर शुरू करता है टकराव
अरक की पहली बूँद के साथ,
और फैल जाता है मानो मेरे सारे जिस्म में
हो कर बेक़ाबू बिना किसी इद्राक़ के
ढाँप  लेता है मेरी हड्डियों को
मेरे बाजुओं के आर पार
और फैल जाता है
मेरी टांगों, पाँवों, सिर और चेहरे पर भी
निगल जाता है मेरे बीते कल के जज़्बातों को
बिना छोड़े कुछ भी बाक़ी,
बढ़ता जाता है धीमे धीमे
लेते हुए मुझे अपने बेसुध आगोश में
धकेलते हुए अपनी फरमाबरदारी की राह पर,,,

कर देता है तब्दील यह ज़हर
मेरे ख़ुशनुमा दिन को एक काली सी वीरान तारीख़ में
मथने लगता हैं यह यह मेरे बदन की गहराई में
नापैद हो जाती है मेरी मुस्कान
गुमसुम हो उठता हूँ मैं,
कोई नहीं देख पाता  इस ज़हर का
मेरे बाहरी जिस्म को लपेट लेना
नहीं जान पाता मैं जो भी हो रहा होता है इस लम्हा ,
हाँ कर देता हूँ ज़ाहिर इसे मैं अपनी नाराज़ी में,
कोई नहीं कर सकता मुझसे बात
क्योंकि मैं हो जाता हूँ ग़ैर रज़ामंद ख़ुद से ही
एक गहरी खामोशी में डूबकर,
बोलता है यह ज़हर मुझ से तब
जैसे फुसफुसाते हुए मेरे कानों में :
"भूल जाओ तुम सारे रिश्तों को
तुम्हें बहोत छोटा समझते हैं वो
एक निपट बेवक़ूफ़ उज्जड मसखरे सा
देखो ! मैं कहता हूँ आख़री बार तुम्हें
छोड़ दो उन सब को जानते हो जिन जिन को
क्योंकि मैं हमेशा से तुम्हारा हिस्सा हूँ
और फिर कल मिलोगे मुझी से तुम.."

फिसलने लगता है यह ज़हर मेरी चमड़ी पर से
रेंग जाते है ख़ौफ़ज़दा ख़्वाब अपनी खाई में
बंद हो जाता है ज़हर जैसे
मेरी रूह में हमेशा के लिए...
मगर नहीं हैं मक़सद मेरा
ढेर हो जाना उसकी ख्वाहिश के मुताबिक़,
मेरी मंज़िले मकसूद
ज़हर नहीं आबे हैवाँ है
कीन नहीं खुलुश है
नफ़रत नहीं मुहब्बत है
मगर सब से पहले ख़ुद अपने लिए
फिर कुदरतन औरों के लिए
होते हुए आज़ाद झूठी निस्बतों से,,,

(तअस्सुब=पूर्वग्रह, इंद्राक़=बोध/sense, फ़रमाबरदारी=आज्ञाकारिता, नापैद=ग़ायब, कीन=द्वेष/घृणा, आबे हैवाँ =अमृत,खुलुश=सौहार्द, निस्बतों=संबंधों)

Thursday, 23 April 2020

दो रंग,,,,



~~~दो रंग~~~

आलमे तन्हाई में,,,
########
जिसने साथ न दिया मेरा
आलमे तन्हाई में
उससे क्या उम्मीद करे
अपनी इस रुसवाई में,
मेरा खुदा मेरे साथ रहा
मातम और शहनाई में,
रहूँ में यक सा मौला
इज़्ज़त या बदगुमाँई में
चलने में क़ायम मेरे होश रहे
समतल में और खाई में,
पढ़ सकते हैं इबारत हम
जो लिखी गयी
बिन डुबोये कलम
जमाने की सियाही में,
रूह ओ जिस्म के दरमियाँ
समझ के भरम ही तो है
नज़र आते हैं दोनो
एक ही परछाई में,,,,

२)
ख़ुशबू ए पुरवाई में,,,
###########
जाने कैसी मस्ती ये
इस ख़ुशबू ए
पुरवाई में,
घायल हम तो हो ही  गए
उनकी मासूम किरदार
अदाई में,
लब खुले कुछ कहने को
सोच के टुक रुक से ही गए
उनकी नादान
हयाई में,
खो बैठे हम यकायक क्यों
रंगो नूर की
रानाई में,
कह दिए फिर लाखों शेर हमने
शोख़ हमदम की
सानाई में,,,

Sunday, 12 April 2020

नियम आकर्षण का : विजया


नियम आकर्षण का....
++++++++++++
निर्मित है सब कुछ ऊर्जा से
करेंगे प्रेषित हम ब्रह्मांड को
ऊर्जा जिस प्रकार की
आएगी लौट कर वैसी ही ऊर्जा
हमारे अस्तित्व को,
कर पाते हैं आकर्षित हम
सकारात्मक या नकारात्मक को
अपने विचारों एवं कर्मों के अनुसार
कुछ ऐसा ही तो है
नियम आकर्षण का...

हमारे विचार करते हैं सृजन
हमारी भावनाओं का
भावनाएँ रचती है कर्म हमारे
और कर्म करते हैं रचित
जीवन हमारा,
आवश्यक है तारतम्य और संतुलन
विचारों, भावनाओं एवं कर्म में,
अत: कुछ भी मात्र औढा हुआ
नहीं बन सकता है विषय वस्तु
आकर्षण नियम का,
ना ही हो सकती है अपेक्षा स्वयं से
किसी भी त्वरित परिवर्तन की,
घटित होती है सकारात्मकता
जब हम स्वयं ही हो पाते हैं
यथार्थ रूप आकर्षण नियम का
होते हुए संतुलित यथार्थ दृष्टि के साथ
रखते हुए खुला मस्तिष्क
महत्ति सम्भावनाओं के प्रति...

अहसासे गुनाह : मुल्ला नसरुद्दीन

अहसासे गुनाह से आज़ादी उर्फ़ मुल्ला का मॉडर्न धर्म गुरु को सबक़ सीखाना,,,,
###########
एक क़स्बे मे एक नामी गिरामी मॉडर्न उपदेशक गुरुजी आए. मुल्ला नसरुद्दीन भी सुनने चला गया. गुरुजी के  उपदेश का विषय था "व्यवधान डालना उचित नहीं...जो होना है सो होना है-होने दो."

"कोई साथ है तो कर्मबंधन से...कोई साथ रहे तो कर्म बंधन से....ना रहे तो कर्म बंधन से.....सभी साथ संगत है कर्म काटने के लिए....सब नाते रिश्ते...माता पिता, पतिपत्नी, प्रेमी प्रेमिका, दोस्त बंन्धु, डाक्टर मरीज़, पुलिस जज अपराधी आदि आदि."
तरह तरह के उदाहरण दे कर लच्छेदार भाषा में समझा रहे थे आधुनिक गुरुजी.

कहते हैं ना जो ख़ुद को सुहाए वही सच....लोगों के अच्छे बुरे सभी क्रिया कलापों को इंटेलेक्चुअल जस्टिफिकेशन मुहैय्या करा रहे थे गुरुजी. गुरुजी के लिए प्रसिद्ध था कि वे अहसासे गुनाह को भगा देते हैं अपनी दलीलों से....वो guilt चाहे व्यापार में धोखा देने का हो, टेक्स चोरी का हो, स्मगलिंग और ड्रग व्यापार का हो, भोग विलास के लिए सम्बंध बनाने का हो, शाश्वत जीवन मूल्यों को तोड़ने का हो...गुरुजी के आध्यात्म का स्कोप हर जो ग़लत हुआ या हो रहा है उसे तोड़ मरोड़ कर बनायी अपनी थ्योरिज याने कर्मबन्धन, वैयक्तिकता, आत्मिक स्वतंत्रता आदि को शब्दजालों का तड़का देकर सही साबित करने तक ही था .....इनके वास्तविक अर्थों से ना तो श्रोताओं/भक्तों को मतलब था और न ही गुरुजी को.

ज़मीनी हक़ीक़तों....जीयी हुई ज़िंदगी....उम्मीदें और खीस....परस्परता.....बदनामी....रिश्तों में तनाव....पाखंड....लुका छिपी आदि सब को भूला कर मगन होकर श्रोता गण सुने जा रहे थे.....मुदित हो कर....क्योंकि मॉडर्न गुरुजी के वचन उन्हें अहसासे गुनाह से आज़ाद जो कर रहे थे. उनके सब उल्टे सीधे कामों को कवर जो मिल रहा था. गुरुजी के cassetes, cds, किताबें ख़ूब बिकती थी. ओशो रजनीश की कोपी केट बन कर सफलता चूमना चाहते थे मॉडर्न गुरुजी. चार छह किताबें ओशो की पढ़ी होगी और कुछ व्याख्यान सुने होंगे....हो गया गहरा अध्ययन 😊😊😊

प्रवचन के बाद अचानक मुल्ला मंच पर चढ़ पहुचा..,, बोलने लगा, "मै आपको एक मज़ेदार लतीफ़ा सुनाता हूँ, गौर से सुनियेगा. लतीफ़ा चार भागों मे है."

पहला भाग :  एक बंदा साइकिल पर अपनी बीबी को बैठा कर कहीं जा रहा था. रास्ते में गडृढा आया, बीबी चिल्लायी: जरा बच कर चलाना ! बंदे ने साईकिल रोकी और उतर कर बीबी को एक झापड मार कर कहा : साइकिल मै चला रहा हूँ कि तू?
गुरुजी  बोले : सही बात है, किसी भी काम मे अडंगा नही डालना चाहिये....जो होता है होने दो...गड्ढा आया आना ही था...साइकिल को गिरना है तो गिरना है...नहीं गिरना है तो नहीं गिरना...लेट गो....होने दो.

मुल्ला ने आगे कहा : जरा सुनिये दूसरा भाग. मियाँ बीवी घर आये. बीबी चाय बनाने लगी. गुस्से मे तो थी ही , स्टोव मे खूब हवा भरने लगी. पति बोला : देखो, कहीं टेंक फ़ट न जाये. बीबी ने पतिदेव की दाढ़ी पकड़ कर उसको एक चांटा लगाया.  बोली : चाय मै बना रही हूँ कि तुम ?

गुरुजी बोले : वाह-वाह, क्या चुटकुला है ! किसी काम मे बीच मे बोलना ही नही चाहिये. सारी बातें कर्मबंधन की वजह से है...जो भी होना है होना है....होने दो. स्टोव फटना है तो फटेगा...किसी के सिर के परखच्चे उड़ने हैं तो उड़ेंगे...बीवी मरी तो नयी बीवी...मियाँ मरा तो वैधव्य या पुनरविवाह...जो होना होना...जिस समय का जो सत्य वह सत्य.

मुल्ला ने कहना आगे जारी रखा । कहा : सुनिये, अब सुनिये चौथा भाग. एक बार एक बंदा....

गुरु जी ने बीच मे टोका : अरे भाई, पहले तीसरा सुनाओ। दूसरे के बाद यह चौथा भाग कहां से आ गया?

नसरुद्दीन ने आव न देखा ताव , भर ताकत एक घूंसा गुरुजी के जबड़े  पर लगाया और बोला : चुटकुला मै सुना रहा हूँ कि तुम ?
तुम पर पावना था मेरा, आज मुझ से पिट कर उधार चूक रहा है...आप मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं."

फिर सब कर्म बँध....जो होना है सो होना है...नीयती है...कर्म काटने हैं....कर्मों का रिन चुकाना है. मुल्ला एक एक करके गुरुजी के उपदेश में खीस निपौर निपौर कर दिए गए उदाहरण रीपीट करने लगा...थप्पड़ पाक के साथ.

गुरुजी जबड़ा सहला रहे थे...फुफकार रहे थे...आयोजकों को कोस रहे थे...बरसों के सम्बन्धों की दुहाई दे रहे थे....मुल्ला की मा बहन कर रहे थे. कहाँ कहाँ कौन कौन उनको मानता है...कितनी ऊँचे तक उनकी पहूँच है....वग़ैरह वग़ैरह..

चारों तरफ़ हो हल्ला...कोलाहल.....असमंजस.
मुल्ला खिसक लिया था.😂😂😂

सकारात्मक-यथार्थ-नकारात्मक,,,,



सकारात्मक-यथार्थ-नकारात्मक,,,,
##################
जीये जाना पहनकर
मात्र गुलाबी ऐनक
देखते जाना
सब कुछ गुलाबी ही गुलाबी
समझ लेना स्वयं को
सर्वाधिक हर्षित मानव धरा पर
भूला कर दैनदिन जीवन की
वास्तविकताओं को,
कर देता है अग्रसर हमको
ऐसा छद्म सकारात्मक रवैय्या
अनपेक्षित उपद्रवों की ओर,,,,

बिन जाने बिन पहचाने
बिन अपनाए यथार्थ को
बन कर रह जाती है मिथक
कथित सकारात्मकता
बन कर विचित्र सा राग
आत्म मुग्धता,अहमतुष्टि
और
शृंगारिक पलायन का,
करने हेतु स्थापित
केवल मैं ही हूँ सकारात्मक
किया जाता है सिद्ध घोर नकारात्मक
बाक़ी सब औरों को,,,,

जोड़ती है अभिवृति
सकारात्मक यथार्थपरकता की
स्वप्नदर्शी दृष्टि
एवं
यथार्थ चिंतन के अन्दाज़ को,
संतुलन के लिए
स्वप्न हमारे हों वृहत और व्यापक
लक्ष्य हमारे हों पगे हुए यथार्थ में,
एक हाथ हों स्वप्न रूपी मानचित्र
हमारे अपरिमित विचरण क्षेत्र का
दूसरे हाथ हों लक्ष्य रूपी कंपास
देने को निर्देश
हमारी दशा और दिशाओं को,,,,

Thursday, 26 March 2020

मुझको ही गलना होगा,,,,



कर लूँगी में सिंगार  तुम्हारे तसव्वुर से
तेरा ख़याल ही अब मेरा गहना होगा,,,,

साथ अपना गर गवारा नहीं ज़माने को
छुप के अब दिल में ही अब रहना होगा,,,

वस्ल ओ हिज्र तो ख़याल है ज़ेहनी
दिल को अब इश्क़ में जलना होगा,,,

तू पत्थर है हिमाला कहलाता है तो क्या
मैं तो हूँ बर्फ़ मुझको ही गलना होगा,,,


दूहे...कोरोना टाइम



देह से सदा नाता रहा आज बिचारा देहतर
रूह की बातें होती रही जिस्म रहे थे बेहतर.

अक़्ल दिलायी विषाणु ने, विष्णु दिलाए याद
ब्रह्मा को स्मरण किया सुना फिर से शिव का नाद.

कुदरत से पंगा लिया और मन पनपाया बैर
बकरे की माँ तू ही बता कब तक मनाए खैर .


कगार पर : विजया


कगार पर...
+++++
खड़े हैं इस पल हम
ज़िंदगी के कगार पर
मौत के भी कगार पर...

दिया है माहौल और वक़्त
इस क़हर ने हमको
बिना किसी आग्रह के
ख़ुद में झांकने के लिए
बहुत कुछ आसपास का
मापने जोखने के लिए
जानने समझने के लिए
औरों को और खुद को भी
 'जस का तस' देखने के लिए...

कर दें माफ़ हम ख़ुद को
ख़ुद को पहुँचाई चोटों के लिए
दबा कर दिल को
जो कुछ जीया हमने उसके लिए
किसी के भी लिए भी
कुछ भी नकारात्मक सोचा उसके लिए...

भूल पायें हम
किसी ने था दिल हमारा दुखाया
समझ और नासमझी में
हम को था सताया
भरमाया फुसलाया और बहलाया
फ़ायदा हमारी कोमलता का उठाया
समझ कर कमजोरी हमारी शालीनता को
अपना हर स्वार्थ सधाया
गलत समझा था हमको
हमारे सही इरादों पर
सवाल था उठाया...

चले गए तो
ना होगा कोई भी बौझा हम पर
बने रहे तो
होगा मुमकिन
बेहतर समझ के संग जीना हम पर...

Thursday, 19 March 2020

शुक्रिया कोरोना !


शुक्रिया कोरोना !
##########
शुक्रिया कोरोना !
शुक्रिया तुम्हारा तहे दिल से...
जगाने के लिए 
देकर आवाज़ इंसानियत को 
सो गयी है जो
दिन में ही लगातार ख़्वाब देखते 
खो गयी है जो 
हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में,,,

शुक्रिया कोरोना !
खुलासा करने के लिए 
हमारी कमज़ोरियों का 
बताकर हम को 
के कितने ग़ैर महफ़ूज़ हैं हम 
तुम्हारी पोशीदा ताक़त के सामने,,,

शुक्रिया कोरोना !
हमें समझा देने के लिए 
के जुड़ी हुई है कायनात सारी नफ़स के रिश्ते से 
के बराबर है हम सारे 
तहत तुम्हारे आईनो क़ानून के 
दरकिनार उम्र, जिंन्स, नस्ल और मज़हब से,,,

शुक्रिया कोरोना !
याद कराने के लिए 
भूला दिए गए तिब्बी सूरमाओं को 
लड़ रहे जो जंग डट कर 
खड़े होकर अगली कतार में
हटकर हर दुनियावी ख़ुदगर्ज़ी से 
डालते हुए अपनी जान जोखिम में,,,

शुक्रिया कोरोना !
हमें बेशक़ीमती सबक़ सीखा देने के लिए 
के कर सकते हैं नाकामयाब तुम को 
ख़ुद पर क़ाबू करके 
के हरा सकते हैं हम तुम को 
एक जुट खड़े होकर 
मोहब्बत,तल्तफ, रहम और इंसानियत के 
परचम तले,,,

(ग़ैर महफ़ूज़=असुरक्षित, जिन्स=लिंग, नस्ल=race, मज़हब=धर्म सम्प्रदाय, तिब्बी=मेडिकल, सूरमाओं योद्धाओं, जंग=युद्ध, तल्तफ=करुणा, रहम=दया, परचम=झंडा)

Friday, 13 March 2020

Love is Just Love,,,,




Love is Just Love,,,
############
Love is just love,
Not this and that
Only strength
Not weakness
Neither opportunity
Nor the Threat !

Love of passion
Love of emotion
Love of body
Love of soul
Love of heart
Love of head
Love of convenience
Love of conviction
Love of commitment
Love of Time-Pass
Love of class or mass
Love of need
Love of Greed
And so on....
Many a forms and colors of Love
We present and propagate
For describing our deeds
For joining dots and beads
For catering to our taste buds
For getting  boosts and thuds,,,

Wandering we are aimless
Searching for
What we know exist not,
Moving confused without any objective
Pursuing some hollow purposes, served not,
Camouflaging and dyeing the lust
By talking repetitively of fake love,
Living Loveless
and
Dying Loveless too !

(I read a sonnet by Pablo Neruda which I have already shared in a seperate post in the forum.This 'Neruda'  became inspiration for writing this sonnet)




Sharing a sonnet by Pablo Neruda :
•••••••••••••••••••••••••••••••••••

Love,,
####
I don't love you as if you were the salt-rose, topaz
or arrow of carnations that propagate fire:
I love you as certain dark things are loved,
secretly, between the shadow and the soul.
I love you as the plant that doesn't bloom and carries
hidden within itself the light of those flowers,
and thanks to your love, darkly in my body
lives the dense fragrance that rises from the earth.

I love you without knowing how, or when, or from where,
I love you simply, without problems or pride:
I love you in this way because I don't know any other way of loving

but this, in which there is no I or you,
so intimate that your hand upon my chest is my hand,
so intimate that when I fall asleep it is your eyes that close.

Tuesday, 10 March 2020

खेलो ना मौ संग होली : विजया




खेलो ना मौ संग होरी !
++++++++++++
प्रीतम !
सदियों से मनाए हैं तुमने
रंगोत्सव संग मेरे
मैं ही तो रही हूँ तुम्हारी
राधा, लैला, हीर,
सीरी, मरवण, रबिया,
आज हूँ मैं सम्मुख तिहारे
लिए हुए हृदय में
तुम्हारे ही रंग सारे
खेलो ना मौ संग होरी !

तुम बिन कहाँ है
बोल मेरे गीतों के,
तुम्हीं तो हो
चंचल शीतल सुगंधित
रंग मेरे जीवन के
क्यों रहते हो इतने उतावले तुम
कितना कठिन होता है
तुम्हें अभिशांत कर रोकना...
बना दो ना मेरे सपनों को सुरंगा
खेलो ना मौ संग होरी !

कोमल उदार और स्नेहिल
होते हो तुम सदा मेरे लिए
बरसाते हो छुप छुप कर
रंग फुहारें मुझ पर
पुकारती रहती हूँ मैं निरंतर
ओ प्रीतम !
ओ मेरे साजन !
आओ ना मेरे रंगरसिया
लगा दो ना
कुछ और रंग अपने प्रेम के मुझ पर
खेलो ना मौ संग होरी !

सागर का हर किनारा
वन का हर बूटा
आसमान का हर पखेरू
सभी पर तो छाया है रंग तुम्हारा
ले पा रही हूँ तुम्हारी ख़ुशबू सब जगह
देख नहीं पा रही हूँ क्योंकर
मूल स्वरूप तुम्हारा,
चाहती हूँ मैं पिघल जाना
तेरे रंगों में
चाहती हूँ रंग जाना
तेरे ही रंगों में
खेलो ना मौ संग होरी !

रातों को तुम्हारी मद्दम आवाज़ें
रंग देती है नील मेरे हृदय को
दिन में तुम्हारी उपस्थिति
रंग देती है लाल मेरी आत्मा को
तुम्हारी लुकाछिपी वाली हँसी
गूंजा देती है संगीत चहुँ ओर,
आओ मनाएँ यह रंगोत्सव संग संग
खो क्यों गए हो
छल की इस झूठी भीड़ में
आ जाओ ना फिर से सम्मुख मेरे
लगा दो ना
कुछ और रंग अपने प्रेम के मुझ पर
खेलो ना मौ संग होरी !

देखे थे मैं ने रंग...



देखे थे मैं ने रंग,,,,
##########
जब मैं ने
बना ली थी अपनी आँखें
खोला था उनको होले से,
देखा था मैंने
रंगों को पिघलते
साँचों में ढलते
दूसरे रंगों के क़रीब आते
एक दूजे से चिपकते
चिपटते सटते लिपटते ,,,

देखे थे मैं ने रंग जो
त्वचा में सोख जाते हैं
जैसे त्वचा हो कोई बेढ़ब सा काठ
कुछ वैसे रंग भी जो
छलक कर फिसल कर
बिखर जाते हैं
त्वचा हो जैसे कोई घुटा हुआ शीशा,,,

देखे थे मैं ने रंग जो
जीवन की तरह जम से जाते हैं
मौत में मिल जाते हैं
एकजुट हो जाते हैं
जंग खा जाते हैं
उबल जाते हैं,,,

देखे थे मैं ने रंग जो
नहीं पढ़ने देते नक़्शों को,
उमड़ घुमड़ आते हैं,
उथल जाते हैं
अतिक्रमण से होकर,
अति प्रेम दर्शाते हैं
मनोमस्तिष्क की सीमाओं से परे जाकर,,,

देखे थे मैं ने रंग जो
रेत में भी ख़ूब खेल लेते हैं
एक साथ पी लेते हैं
पानी भी, कोकटेल भी...खून भी,
बोर हो जाते हैं
सेक्स हो जाते हैं
धरती चीर कर उभर आते हैं
लुक छुप कर छू लेने के बाद
ना जाने कहाँ ग़ायब हो जाते हैं,,,

देख लिए हैं मैं ने रंग जो
हर बार हार जाते हैं
हर हाल में हताश रहते हैं
हवा के, सहारे के,
आसरे के, पनाह के, अनजाने उद्धारक के
इंतज़ार में होते हैं,,,

देखे थे मैं ने रंग जो
अजीब से ठंडाते हुए
जैसे विज्ञान में
कार्य और कारण के रिश्ते,
फ़र फ़र फहराते हुए
जैसे कोई परचम आकाश में,
लगातार ऊँचाईयों पर चढ़ते हुए
जैसे हो पर्वतारोही कोई,
सब को परास्त करते हुए
जैसे हो योद्धा कोई,
छूट कर आगे बढते हुए
जैसे प्यार से ज़बरन पकड़ा बच्चा हो कोई
क़दम क़दम बढ़ाते हुए
जैसे परेड में केडेट कोई,,,

देखे हैं मैं ने  रंग
वस्तुओं के बीच फँसे चिपके
वो ही जो भर देते हैं
ख़ाली जगहों को
नज़र और नज़रियों को
चाय की ख़ाली प्यालियों को,,,

देखा है मैं ने
रंगों को सफ़ेद झूठ बोलते हुए,
सफ़ेद साफ़ और पाक नहीं
मगर बहुत ख़ुश दिखते हैं वे अपने लिए,
दुखों द्वन्दों दुविधाओं पर
आवरण बने हैं वे रंग
ख़ुद को ही धोखा देते
कहकहे लगाते रंग,,,

देखा है मैं ने
बेगाने थे रंग
एहसासों के लिए
महसूसा है फिर
कुछ भी हों चाहे
नहीं है रंग यहाँ कोई भी
हम जैसों के लिए,,,