थीम सृजन : इश्क़, अलगाव, यादें
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एक बहुत ही मधुर मराठी गीत (ऋणानुबंधांच्या जिथून पडल्या गाठी भेटीत तृष्टता मोठी) सुना कुमार गंधर्व जी और वाणी जयराम जी की आवाज़ में. कहते हैं यह एक अनुपम अलंकृत काव्यकृति है कृष्ण और उनकी सहचरी रुक्मिणी के बीच हुए प्रेम बोलों के आदान प्रदान को समाए. इसके असली माधुर्य और अभिव्यक्ति का आनंद तो मूल शब्दों और गायन में ही है किंतु मैं ने भी भावों को अपनी भाषा में एक नई तरह से उकेरने का प्रयास किया है. मैं भावानुवाद की यह नौसखिया सी कोशिश ग्रुप पटल पर, अपनी ग़लतियों के लिए क्षमा प्रार्थना के साथ शेयर कर रही हूँ.
मुझे मराठी भाषा नहीं आती, किंतु मैंने शब्दकोश, अंग्रेज़ी अनुवाद, अपने मन के एहसास और कुमारगंधर्व-वाणी जी की प्रस्तुति से सहयोग लिया है.....मेरे सहचर 'साहेब' ने भी अपने तौर पर मदद की है कुछ इनपुट देकर, चिढ़ा कर, differ हो कर,मखौल उड़ा कर, प्रोत्साहन देकर इत्यादि...हाँ उनका भी धन्यवाद !😊
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बँध संबंधों से पार...
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ढाले हैं हमने बंध
सम्बन्धों से पार
असूदगी है बेइंतहा
हर सुपुर्दगी अपनी में...
थरथराती है अक्सर
काँपते लबों पे
शाम के धुँधलके की उदासियाँ
ले आ रही हो साँझ ज्यूँ यादें
संग बीते लम्हात की
अनगिनत हिज़्रो विसाल की,
नहीं बिछुड़े हैं ना हम कभी..मगर
बनावटी झगड़े के बिना ?
रूठने मुझ से
बिखरे मिज़ाज हैं
नाज़ों नख़रों में उनके,
उनकी भोली सूरतिया को
बनाते रहे हैं और भी हसीन
दिलकश बहाने नाराज़गी के,
एक डोर हो ज्यों
सिहरन और गरमाहट की
इसीलिए हुआ है मज़बूत
बंधन जन्मों से परे का...
हैं कभी इक दूजे से लिपटे
ख़ुशियों से भरे भरे
कभी हो कर ग़मज़दा
सुखद पलों को ज्यूँ याद करे
कभी मसर्रत में हैं भीगे
कभी चिढ़ते खीजते हम
लिखते हुए अपनी यादों को
ऊँगलियाँ रेत पर घसीटते...
आते रहे हैं संग यहाँ
कितने जन्मों से हम नामालूम
बन पाए हैं ना इस कदर तभी
संगी हर नफ़स के लिए...
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असूदगी=तृप्ति, सुपुर्दगी=समागम,समर्पण
हिज्र=बिछौह, विसाल=मिलन, मसर्रत=आनन्द/bliss
नफ़स=साँस
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