Sunday, 18 October 2020

चोट आख़री : विजया



चोट आख़री 

++++++


सौदा ए इश्क़ महज़ मुहावर है यक 

ज़िंदगी में तिजारत चलाता गया 

अना के हिर्स ने मुझ को गाफ़िल किया

साँप आस्तीं में अपने पलाता गया 

शराब ना थी ज़हर था कराब: में 

जाम फिर भी मुससल ढलाता गया...


वो आया और आकर यूँ कहने लगा 

इश्क़ तुम से ही, तू अभी तक क्यूं ना मिला 

मुरझाई थी कब से यह बगिया हसीं

तेरे आने से, हर गुल यहाँ का खिला 

पाप-पुन्न थोथी बातों में माहिर था वो 

जो भी जैसा मिला, उसको वैसा सिला...


बहाने थे रस्ते रूह से हो कर जाने के 

जिस्म का दर, जिस भी चाभी से खुलता मिला 

ख़रीदार ऐसा, ठसा ठस था खीसा भरा 

निकला हर कोई सिक्का जो चलता मिला 

खेल दिल के निरालों का शौक़ीन वो 

कोई आया तो, कोई निकलता मिला...


ग़लत माना वो नहीं, जो कुछ उससे हुआ 

ठीकरा सिर औरों के, फोड़ता सा मिला 

ज़िक्र क़समों का था फहरिस्त-ताम में 

जो ना खा सके, हो जूठन वो छूटता सा मिला 

आइना ख़ुद ही देखा, चल दिया लौट कर 

घबराया ज्यूँ अक्स उसका, टूटता सा मिला...


उजड़ा आशियाँ अपने ही हाथों से जब 

महफ़िल खुल्ले में कोई सजाता मिला 

जमीं थी खुली, आसमां था खुला 

कोई खो कर गया, कोई पाता मिला

लाखों मिन्नत ओ सजदे हुए बे असर 

चोट आख़री जो हद्दाद लगाता मिला...


(मायने: सौदा=लेनदेन/transaction, तिजारत=व्यापार,अना=अहम,हिर्स=लालच 

क़राब:=शराब की सुराही,फहरिस्त ताम=menu,

हद्दाद=लोहार)

No comments:

Post a Comment