सकारात्मक-यथार्थ-नकारात्मक,,,,
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जीये जाना पहनकर
मात्र गुलाबी ऐनक
देखते जाना
सब कुछ गुलाबी ही गुलाबी
समझ लेना स्वयं को
सर्वाधिक हर्षित मानव धरा पर
भूला कर दैनदिन जीवन की
वास्तविकताओं को,
कर देता है अग्रसर हमको
ऐसा छद्म सकारात्मक रवैय्या
अनपेक्षित उपद्रवों की ओर,,,,
बिन जाने बिन पहचाने
बिन अपनाए यथार्थ को
बन कर रह जाती है मिथक
कथित सकारात्मकता
बन कर विचित्र सा राग
आत्म मुग्धता,अहमतुष्टि
और
शृंगारिक पलायन का,
करने हेतु स्थापित
केवल मैं ही हूँ सकारात्मक
किया जाता है सिद्ध घोर नकारात्मक
बाक़ी सब औरों को,,,,
जोड़ती है अभिवृति
सकारात्मक यथार्थपरकता की
स्वप्नदर्शी दृष्टि
एवं
यथार्थ चिंतन के अन्दाज़ को,
संतुलन के लिए
स्वप्न हमारे हों वृहत और व्यापक
लक्ष्य हमारे हों पगे हुए यथार्थ में,
एक हाथ हों स्वप्न रूपी मानचित्र
हमारे अपरिमित विचरण क्षेत्र का
दूसरे हाथ हों लक्ष्य रूपी कंपास
देने को निर्देश
हमारी दशा और दिशाओं को,,,,
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