Tuesday, 10 March 2020

खेलो ना मौ संग होली : विजया




खेलो ना मौ संग होरी !
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प्रीतम !
सदियों से मनाए हैं तुमने
रंगोत्सव संग मेरे
मैं ही तो रही हूँ तुम्हारी
राधा, लैला, हीर,
सीरी, मरवण, रबिया,
आज हूँ मैं सम्मुख तिहारे
लिए हुए हृदय में
तुम्हारे ही रंग सारे
खेलो ना मौ संग होरी !

तुम बिन कहाँ है
बोल मेरे गीतों के,
तुम्हीं तो हो
चंचल शीतल सुगंधित
रंग मेरे जीवन के
क्यों रहते हो इतने उतावले तुम
कितना कठिन होता है
तुम्हें अभिशांत कर रोकना...
बना दो ना मेरे सपनों को सुरंगा
खेलो ना मौ संग होरी !

कोमल उदार और स्नेहिल
होते हो तुम सदा मेरे लिए
बरसाते हो छुप छुप कर
रंग फुहारें मुझ पर
पुकारती रहती हूँ मैं निरंतर
ओ प्रीतम !
ओ मेरे साजन !
आओ ना मेरे रंगरसिया
लगा दो ना
कुछ और रंग अपने प्रेम के मुझ पर
खेलो ना मौ संग होरी !

सागर का हर किनारा
वन का हर बूटा
आसमान का हर पखेरू
सभी पर तो छाया है रंग तुम्हारा
ले पा रही हूँ तुम्हारी ख़ुशबू सब जगह
देख नहीं पा रही हूँ क्योंकर
मूल स्वरूप तुम्हारा,
चाहती हूँ मैं पिघल जाना
तेरे रंगों में
चाहती हूँ रंग जाना
तेरे ही रंगों में
खेलो ना मौ संग होरी !

रातों को तुम्हारी मद्दम आवाज़ें
रंग देती है नील मेरे हृदय को
दिन में तुम्हारी उपस्थिति
रंग देती है लाल मेरी आत्मा को
तुम्हारी लुकाछिपी वाली हँसी
गूंजा देती है संगीत चहुँ ओर,
आओ मनाएँ यह रंगोत्सव संग संग
खो क्यों गए हो
छल की इस झूठी भीड़ में
आ जाओ ना फिर से सम्मुख मेरे
लगा दो ना
कुछ और रंग अपने प्रेम के मुझ पर
खेलो ना मौ संग होरी !

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